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ही जी सकता हूँ। यह दृष्टि तो हमने पकड़ी नही, महा खाने-पीने और दानधर्म की मर्यादाओ में उलझ गये हैं। समग्र जीवन __ महावीर का धर्म टोटेलिटी-समग्रता का धर्म है। बडित कुछ नहीं चलेगा । मन्दिर का धर्म अलग और व्यापार-व्यवसाय का अलग ऐसा विभाजन हो ही नहीं सकता। आप जो सुबह हैं बही शाम हैं, आप जो धर्म-जगत् मे हैं वही कर्म-जगत् मे हैं। 'विवेक और जागरण' की मशाल उन्होने मनुष्य के हाथ में सारे समय के लिए थमा दी। जो कुछ करो विवेक से करो, मूर्छा छोडकर करो, प्रमाद से बाहर निकल कर करो। पर हमने महावीर की मूर्ति तो अखण्डित रखी और अपने-अपको जगहजगह से तोड लिया है। एक ही मनुष्य के कई बौने मनुष्य बना लिए है। मन्दिर का मनुष्य एकदम अलग है, बाजार के मनुष्य से। बाजार मे उसने झूट, चोरी, तृष्णा, द्वेष, ईष्या, सग्रह, लूट, शोषण-सब कुछ कर्म-जगत् का कौशल मानकर स्वीकार लिया है और वही वीतरागी महावीर के पास पहुँच कर कहता है-मुझे इनसे बचना है । महावीर अविभाज्य व्यक्तित्व चाहते हैं और हम बिखर-बिखर कर चल रहे हैं। महावीर के पास कोई देवालय नही था कि वहा जाकर वह धर्म साधता । वह तो आत्म-धर्म का प्रकाश लेकर पूरे जीवन मे चल पडा। यह उसकी एक क्रान्तिकारी देन है, जो हमने ली ही नही।
इसी तरह अहिंसा के साथ महावीर ने 'अपरिग्रह' जोड दिया। बहुत गहरे गये वे इस दिशा मे। यह वस्तुओ के भोग या त्याग की बात नहीं है, उनसे अलिप्त होने का अभ्यास है। सन्यासी ने घर छोडा और छोडने का अहकार मन मे रह गया तो उसका छोडा और न छोड़ा सब अकारथ । वे पूरे जीवन अलिप्त होने का अभ्यास करते रहे। पर इस साधना में हम पडे ही नहीं। हम तो खूब-खब पकड रहे और फिर कुछ-कुछ छोड रहे
जीवन में?