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विराट् विरासत है। एकाम करनी की किस्मत, को
म हाक लगेगी, न पूजने से । बोलने को तो है ही नहीं, जो कुछ है करने की है। अपने-आप में सहज होकर जीने की है। जितेन्द्रिय ___ महावीर अपने-आप से जीतता गया, इसलिए 'जिन' कहलाया। पर हम सेंत-मेत मे ही 'जन' हो गये। जन्मते ही हमारे हाथ ऐसी विरासत लग गयी जिसे जीयें तो 'जिन' हो सकते हैं, पर हम ऐसा कुछ नहीं कर रहे। वह बाहर का फेंक कर भीतर गया और हम उसका ही नाम लेकर बाहरबाहर र रहे हैं। भीतर तो हमारे पैर रखने को जगह नहीं है। उसकी विराट् विरासत बाहर टटोल रहे हैं। सदियो चल कर हमने एक विशाल इस्टेट--जायदाद महावीर की बना ली है । जिन-वाणियो की सुन्दर जिल्द हमारे पास हैं, एक-से-एक आलादर्जा वीतरागी मूर्तिया भगवान महावीर की हमारे मदिरो में विराजमान हैं, चमकते-दमकते कलश हैं, तीर्थ-स्थान हैं, लाखो की सख्या में हम खुद हैं, हमारी एक परम्परा है-भक्ति की, साधना की, व्रत-उपवास की, श्रवण की, दया और त्याग की । श्रावक परम्परा है और साधु-परम्परा है । अहिमा हमारा लक्ष्य है। पर यह सब बाहर-बाहर है, भीतर गया ही नही। महावीर भीतर के और हम बाहर के । महावीर करनी के और हम कथनी के । महावीर निलिप्त और हम लगे हैं पकडने मे । ऐसे मे महावीर की विरासत हमारे पल्ले पडी क्या ? इस प्रश्न का उत्तर जरूर खोजिए, महावीर निर्वाण की पच्चीसवी शताब्दी शायद सफल हो जाये ।
महावीर की पहली अनुभूति तो यह है कि जीवन बाहर नहीं, भीतर है। इसलिए लौटो-बाहर से छूटो और भीतर जाओ। अपने आरकतत्त्व को खोजो। उन्होने एक अद्भुत प्रक्रिया की खोज की-'सामादि। समय यानेमामा और माविक याने पाल्मा में होना। यह ध्यान
जीवन मे?