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महावीर की विरासत
समुद्र-भर विरासत मे से हमने कुछ सीपिया उठा ली हैं और मान बैठे है कि हम महावीर के है और उसके द्वारा सौपी विराट् विरासत के मालिक है। इससे बडी और कोई भ्रान्ति नही हो सकती । वह एक अद्भुत, अपने आप मे सहज, निपट अपरिग्रही आत्मदर्शी था - कौन-सी विरासत दे जाता ? न उसने पन्थ बनाया, न सम्प्रदाय, न उसने ग्रन्थ रचे, न परम्पराएँ बनायी । न कोई उसका मठ, न विहार, न सघ । उसने बस जीवन जीया, अन्दर का सारा कूडा बाहर फेका और भीतर के इस स्वच्छ रिक्त स्थान में सारी सृष्टि को आत्मसात् कर गया । यह जो बाहर से भीतर उतरने और भीतर-ही-भीतर आत्म-तत्त्व को देखने-परखने, उसकी शक्तियो का अन्दाज लगाने, आत्म-तत्त्व को तोडने वाले विकारो से जूझने ओर उनसे मुक्ति पाने की प्रक्रिया मे वह डूबा रहा, निखर-निखर कर ऊपर आता गया और अन्त मे अपनी इन गहरी अनुभूतियो को बिना किसी भाषा और ग्रन्थ के सहारे अभिव्यक्त करता गया यही उसकी
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महावीर