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चौथा प्रकरण।
शब्दार्थ।
मूलम् । हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया। न हि संसारवाहीकैर्मूढैः सह समानतः ॥ १॥
पदच्छेदः । हन्त, आत्मज्ञस्य, धीरस्य, खेलतः, भोगलीलया, न, हि, संसार, वाहीकै, मूढः, सह, समानता ।। अन्वयः।
शब्दार्थ । | अन्वयः । हन्त यथार्थ है कि । समानता बराबरी भोगलीलया भोगलीला से संसारवाहीकैः संसार से लिप्त खेलतः खेलते हुए
मूढः सह-मूढ पुरुषों के साथ आत्मज्ञस्य-आत्म-ज्ञानी धीरस्य-धीर पुरुष की
न हि । सकती है।
भावार्थ । तृतीय प्रकरण में जो गुरु ने शिष्य की परीक्षा के लिये ज्ञानी के ऊपर आक्षेप किये हैं, अब उन आक्षेपों के उत्तरों को शिष्य कहता है
प्रारब्ध से और वाधिताऽऽनुवृत्ति करके सम्पूर्ण व्यवहारों को करता हुआ भी ज्ञानी दोष को प्राप्त नहीं होता है । जनकजी कहते हैं कि हे भगवन् ! जिस आत्मज्ञानी विद्वान् ने सबका अधिष्ठान अपने आत्मा को जान लिया है, वह
नहि
कदापि नहीं हो