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विषयों करके विक्षेप को नहीं प्राप्त होता है, अर्थात् उसका चित्त विषयों के सम्बन्ध से विक्षेप को नहीं प्राप्त होता है !
यदि विद्वान् प्रारब्धकर्म के वश से स्त्री आदि भोगों में प्रवत्त भी हो जावे, तब भी मूढ़ बुद्धिवाले अज्ञानियों के साथ उसकी तुल्यता किसी प्रकार नहीं हो सकती है। क्योंकि विद्वान् विषयों को भोगता हुआ भी उनमें आसक्त नहीं होता है, और मूर्ख कर्मों में आसक्त हो जाता है । इसी वार्ता को 'गीता' में भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी ने कहा है
तस्ववित्त महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणागुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥१॥
हे महाबाहो ! तत्त्ववित् जो ज्ञानी है, सो इन्द्रियों के विषयों के विभाग को जानता है और इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में वर्तती हैं, मैं इनका भी साक्षी हूँ, किन्तु मेरा इनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है ॥ १ ॥
एवं पञ्चदशीकार ने भी ज्ञानी और अज्ञानी का भेद दिखलाया है- .
ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्चात्रं समे प्रारब्धकर्मणि । न क्लेशो ज्ञानिनो धैर्यान्मूढः क्लिश्यत्यधैर्यतः ॥ १॥
प्रारब्ध कर्म के भोग में ज्ञानी और अज्ञानी दोनों तुल्य ही हैं । कष्ट होने पर भी ज्ञानी धीरता से क्लेश को प्राप्त होता है और अज्ञानी मूर्ख अधीरता के कारण क्लेश को प्राप्त होता है ।। १ ॥