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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
( १ ) हे प्रभो ! पुरुष आत्म-ज्ञान को कैसे प्राप्त होता है ?
( २ ) संसार बंधन से कैसे मुक्त हो जाता है अर्थात् जन्म-मरणरूपी संसार से कैसे छूट जाता है ? ( ३ ) एवं वैराग्य को कैसे प्राप्त होता है ? राजा का तात्पर्य यह था कि ऋषि वैराग्य के स्वरूप को, उसके कारण को और उसके फल को; ज्ञान के स्वरूप को, उसके कारण को, और उसके फल को; मुक्ति के स्वरूप को, उसके कारण को, और उसके भेद को मेरे प्रति विस्तारसहित कहें ॥ १ ॥
राजा के प्रश्नों को सुनकर अष्टावक्रजी ने अपने मन में विचार किया कि संसार में चार प्रकार के पुरुष हैं । एक ज्ञानी, दूसरा मुमुक्षु, तीसरा अज्ञानी, चौथा मूढ़ । चारों में से राजा तो ज्ञानी नहीं है, क्योंकि जो संशय और विपर्यय से रहित होता है और आत्मानन्द करके आनंदित होता है, वही ज्ञानी होता है । परंतु राजा ऐसा नहीं है, किन्तु यह संशय करके युक्त है ।
एवं अज्ञानी भी नहीं है क्योंकि जो विपर्यय ज्ञान और असंभावनादिकों करके युक्त होता है उसका नाम अज्ञानी है, परंतु राजा ऐसा भी नहीं है । तथा जिसके - चित्त में स्वर्गादिक फलों की कामनाएँ भरी हों, उसका नाम अज्ञानी है, परन्तु राजा ऐसा भी नहीं है ।
यदि ऐसा होता, तो यज्ञादिक कर्मों के विषय में विचार करता, सो तो इसने नहीं किया है । एवं मूढबुद्धिवाला भी नहीं है, क्योंकि जो मूढबुद्धिवाला होता है, वह कभी भी