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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
अत्ययः।
का शुद्ध स्वरूप श्रवण करके और साक्षात्कार करके भी जो पुरुष समीपवर्ती विषयों में अत्यन्त संसक्त होता है, वह कैसे मूढ़ता को प्राप्त होता है, यह बड़े आश्चर्य की वार्ता है ।।४।।
मूलम् । सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।। मुनेर्जानत आश्चर्य ममत्वमनुवर्तते ॥ ५ ॥
पदच्छेदः । सर्वभूतेषु, च, आत्मानम्, सर्वभूतानि, च, आत्मनि, मुनेः, जानतः, आश्चर्यम्, ममत्वम्, अनुवर्तते ॥ शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। आत्मानम् आत्मा को
जानतः जानते हुए सर्वभूतेषु सब भूतों में
मुनेः=मुनि को च-और
ममत्वम्-ममता आत्मनि-आत्मा में
अनुवर्तते होती है सर्वभूतानि सब भूतों को
आश्चर्यम्=यही आश्चर्य है ।।
भावार्थ । ब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यंत सम्पूर्ण भूतों में जिसने अधिष्ठानभूत आत्मा को जान लिया है, और फिर सम्पूर्ण भूतों को जिसने आत्मा में जान लिया है, अर्थात् सम्पूर्ण भूत रज्जु-सर्प की तरह आत्मा में कल्पित हैं, ऐसा जान करके भी फिर जिसका विषयों में ममत्व होवे, तोआश्चर्य की वार्ता है। क्योंकि जिसने शुक्ति में अध्यस्त रजत को जान लिया है, उसकी प्रवृत्ति फिर उस रजत के लिये नहीं होती है ॥ ५ ॥