________________
पहला प्रकरण ।
पदच्छेदः । देहाभिमानपाशेन, चिरम् बद्ध:, असि पुत्रक, बोधः, अहम्, ज्ञानखड्गेन, तत्, निष्कृत्य, सुखीभव ||
"
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
अन्वयः ।
पुत्रक = हे पुत्र ! देहाभिमान - _ देह के अभिमान रूपी पाशेन पाश से
चिरम् = बहुत काल का
बद्ध = बँधा हुआ
तू है अहम् =मैं
बोधः-बोध-रूप हूँ इति = ऐसे
त्वम्=तू सुखीभव = सुखी हो ||
ज्ञानखङ्गेन =ज्ञान रूपी तलवार से तत् = उसको यानी उस रस्सीको
निष्कृत्य = काट करके
३३
शब्दार्थ |
भावार्थ ।
हे जनक ! " देहोऽहम् " मैं देह हूँ - इस प्रकार के अभिमान करके तू चिरकाल से बन्धायमान हो रहा है अर्थात् अपने को संसार-बंध में डाल रहा है, अब तू आत्मज्ञान रूपी खड्ग से उसका छेदन करके, 'मैं ज्ञान - स्वरूप हूँ', 'नित्य - मुक्त हूँ' - ऐसा निश्चय करके सुखी हो, क्योंकि तेरे में बन्धन तीनों काल में नहीं है || १४ ||
निःसंगो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरञ्जनः । अयमेव हि ते बन्धः
जनकजी फिर पूछते हैं कि हे भगवन् ! पतंजलिजी के मतानुयायी चित्त वृत्ति के निरोध-रूप योग को ही बंध की निवृत्त का हेतु मानते हैं, सो उनका मानना ठीक है या नहीं ? मूलम् ।
समाधिमनुतिष्ठसि ॥ १५ ॥