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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
बाह्यम् बाहर
कूटस्थम् कूटस्थ अन्तरम् भीतर
बोधम्बोध-रूप भावम् भाव को
अद्वैतम्-अद्वैत मुक्त्वा -छोड़ करके
आत्मानम्-आत्मा को त्वम्-तू
| परिभावय-विचार कर ।।
भावार्थ । हे जनक ! "मैं आभास हूँ" "मैं अहंकार हूँ" इस भ्रम का त्याग करके और जो बाहर के पदार्थों में ममता हो रही है कि 'यह मेरा शरीर है' 'मेरे ये कान नाक आदिक हैं' इन सबमै-'अहं' और 'मम' भावना का त्याग करके और अन्तर अन्तःकरण के धर्म जो सूख दुःखादिक हैं, उनमें जो तुझको अहंभावना हो रही है, उसका त्याग करके आत्मा को अकर्ता, कूटस्थ, असंग, ज्ञान-स्वरूप, अद्वैत और व्यापक निश्चय कर ।। १३ ।।।
जनकजी प्रार्थना करते हैं कि हे महाराज ! अनादि काल का जो देहादिकों में अभिमान हो रहा है, वह एक बार के उपदेश से दूर नहीं हो सकता है, अतएव आप पुन:-पुनः मेरे को उपदेश करिये ताकि श्रवण करके मेरा देहादि अभिमान दूर हो जावे।
_ इस प्रश्न को सुनकर अष्टावक्रजी फिर आत्म-विद्या के उपदेश को करते हैं
मूलम् । देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक । बोधोऽहं ज्ञानखङ्गेन तनिष्कृत्य सुखीभव ॥ १४ ॥