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________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० मूलम् । सुप्तोऽपि न सुषुप्तौ च स्वप्नेऽपि शयितो न च । जागरेऽपि न जागति धीरस्तृप्तः पदे पदे ॥ ९४ ॥ पदच्छेदः । ३६८ सुप्तः, अपि, न, सुषुप्तौ च, स्वप्ने, अपि, शयितः, न, च, जागरे, अपि, न, जागर्ति, धीरः, तृप्तः, पदे, पदे ॥ शब्दार्थ | अन्वयः । धीरः = ज्ञानी सुषुप्तौ = सुषुप्ति में सुप्तः सुप्तवान् है च = और स्वप्ने स्वप्न में अपि = भी शब्दार्थ | अन्वयः । न=नहीं शयितः = सोया हुआ है च = और जागरे=जाग्रत् में अपि भी न=नहीं अपि = भी न=नहीं जागति= जागता है। अतएव = इसी लिये सः वह पदेपदे = क्षण-क्षण में तृप्तः = तृप्त है ॥ भावार्थ । 1 जीवन्मुक्त विद्वान् सुषुप्ति के होने पर भी सुषुप्तिवाला नहीं होता है । और स्वप्न अवस्था के प्राप्त होने पर भी वह स्वप्न अवस्थावाला नहीं होता है । जाग्रत् अवस्थाओं में जागता हुआ भी वह जागता नहीं है । क्योंकि तीनों अवस्थाओंवाली जो बुद्धि है; उसका वह साक्षी होकर उससे पृथक् है ।। ९४ ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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