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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ । जीवन्मुक्त निर्विकार होकर संसार में रमण करता है, अपने पास कुछ भी नहीं रखता है। वह विधि-निषेध का किङ्कर नहीं होता है । स्वच्छन्दचारी है। अपनी इच्छा से विचरता है । सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से वह रहित है, संशयों से भी रहित है, वह किसी पदार्थ में भी आसक्त नहीं है।। ८७।।
मूलम् । निर्ममः शोभते धीर: समलोष्टाश्मकाञ्चनः । सुभिन्नहृदयग्रन्थिविनिर्धूतरजस्तमः ॥ ८ ॥
पदच्छेदः । निर्ममः, शोभते, धीरः, समलोष्टाश्मकाञ्चनः, सुभिन्नहृदयग्रन्थिः, विनिर्धू तरजस्तमः ॥ अन्वयः।
शब्दार्थ । | अन्वयः । निर्ममः-जो ममता-रहित है । सुभिन्नहृदय-_ टूट गई है हृदय
ग्रन्थिः । की ग्रन्थि जिसकी
शब्दार्थ ।
समलोष्टाश्म- (जिसको ढेला पत्थर
निधूतरज-
धुल गया है रज और
काञ्चनः । है
32 और स्वर्ण समान
= तम स्वभाव जिसका, स्तमः । ऐसा ज्ञानी
शोभते शोभायमान होता है ।
भावार्थ । ममता से रहित ही जीवन्मुक्त ज्ञानी शोभा को पाता है। क्योंकि उसकी दृष्टि में पत्थर, मिट्टी और सोना