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अठारहवाँ प्रकरण।
३५३ पदच्छेदः । क्व, तमः, क्व, प्रकाश:, वा, हानम्, क्व, च, न, किञ्चन, निर्विकारस्य, धीरस्य, निरातकस्य, सर्वदा ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। निर्विकारस्य-निर्विकार
वा अथवा च और
क्वाकहाँ सर्वदा सर्वदा
प्रकाश:-प्रकाश है निरातकस्य-निर्भय
च-और धीरस्य-ज्ञानी को
क्व-कहाँ क्व-कहाँ
हानम्-त्याग है तमः अन्धकार है
न किञ्चन कुछ नहीं है ।
भावार्थ । हे शिष्य ! जिस विद्वान् के मोहादि-रूप सब विकार दूर हो गए हैं, उसकी दृष्टि में तम कहाँ है ? और तम के अभाव होने से प्रकाश कहाँ है ? ये दोनों सापेक्षिक हैं। एक के न होने से दूसरे की भी स्थिति नहीं है। क्योंकि लौकिक दष्टि करके ही तम और प्रकाश हैं, सो लौकिक दष्टि उसकी आत्म-दष्टि करके नष्ट हो जाती है, इसलिए उसकी दष्टि में प्रकाश और तम दोनों नहीं रहते हैं। ऐसे विद्वान् को कालादिकों का भी भय नहीं रहता है। उसको न कहीं हानि है, न लाभ है, न किसी में राग है, न द्वेष है, न ग्रहण है, न त्याग है ।। ७८ ॥
मूलम् । क्व धैर्य क्व विवेकित्वं क्व निरातंकतापि वा। अनिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्वभावस्य. योगिनः ॥ ७९ ॥