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________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० पदच्छेदः । सुखम्, आस्ते, सुखम्, शेते, सुखम्, आयाति, याति, च सुखम्, वक्ति, सुखम्, भुंक्ते, व्यवहारे, अपि, शान्तधीः ॥ शब्दार्थ | अन्वयः । शब्दार्थ | अन्वयः । ३३६ व्यवहारे व्यवहार में अपि-भी शान्तधीः- ज्ञानी सुखम् = सुख-पूर्वक आस्ते बैठता है सुखम् = सुख- पूर्वक आयाति आता है। च और याति = जाता है। सुखम् = सुख पूर्वक वक्त बोलता है। च = और सुखम् = सुख- पूर्वक भुङ क्ते भोजन करता है || भावार्थ । जीवन्मुक्त ज्ञानी व्यवहार आदिकों में भी आत्मसुख करके ही स्थित रहता है । बैठते-उठते, शयन करते, खातेपीते संपूर्ण क्रियाओं को करते हुए भी विद्वान् शान्तचित्तवाला रहता है ।। ५९ ।। मूलम् । स्वभावाद्यस्य नैवातिर्लोकवद्वयवहारिणः । महाह्रद इवाक्षोभ्यो गतक्लेशः सुशोभते ॥ ६० ॥ पदच्छेदः । स्वभावात्, यस्य, न, एव, आर्तिः, लोकवत्, व्यवहारिणः, महाह्रदः, इव, अक्षोभ्य, गतक्लेशः, सुशोभते ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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