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________________ यावज्जीवम् । जीवन है अठारहवाँ प्रकरण। ३१७ पदच्छेदः । शुद्धम्, अद्वयम्, आत्मानम्, भावयन्ति, कुबुद्धयः, न, तु, जानन्ति, संमोहात्, यावज्जीवम्, अनिवृताः ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ। कुबुद्धयः-दुर्बुद्धि पुरुष __ संमोहात-अज्ञानता के कारण शुद्धम् शुद्ध न जानन्ति नहीं जानते हैं अद्वयम् अद्वैत अतः इसलिये आत्मानम्-आत्मा को जब तक उनका भावयन्ति भावना करते हैं तु-परन्तु अनिवृताः संतोष-रहित है ॥ भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! अज्ञानी मूढ़ शुद्ध निर्मल द्वैत से रहित व्यापक आत्मा का अनुभव नहीं करते हैं, क्योंकि उनका मोह सांसारिक पदार्थों से निवृत्त नहीं हुआ है। इसी कारण उनको आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता है । जब तक वे जीते हैं, सन्तोष को कदापि नहीं प्राप्त होते हैं । आत्मा के साक्षात्कार होने के विना सन्तोष की प्राप्ति नहीं हो सकती है ।। ४३ ।। मूलम् । मुमुक्षोर्बुद्धिरालम्बमन्तरेण न विद्यते । निरालम्बैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा ॥ ४४ ॥ पदच्छेदः । मुमुक्षोः, बुद्धिः, आलम्बम्, अन्तरेण, न, विद्यते, निरालम्बा, एव, निष्कामा, बुद्धिः, मुक्तस्य, सर्वदा ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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