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________________ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० शब्दार्थ। ऽभावकः । माननेवाला पदच्छेदः । भावस्य, भावकः, कश्चित्, न, किञ्चित्, भावकः, अपरः, उभयाऽभावकः, कश्चित्, एवम्, एव, निराकुलः ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।। कञ्चित् कोई भावक: माननेवाला है भावस्य भाव का एवम् एव-वैसा ही भावक:-माननेवाला है कञ्चित्-कोई अपरः और कोई उभया- (दोनों अर्थात् भाव किञ्चित् कुछ भी 32 और अभाव का नहीं न नहीं है एवम् ऐसा निराकुलः स्वस्थ चित्त है ॥ भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे राजन् ! कोई एक नैयायिक ऐसा मानता है कि भाव-रूप प्रपञ्च परमार्थ से सत्य है। और कोई शून्य वादी कहता है कि सब प्रपञ्च शून्य-रूप है, क्योंकि शून्य ही से उसकी उत्पत्ति होती है। और हजारों में से कोई एक आत्मा का अनुभव करनेवाला होता है । वह भाव और अभाव दोनों की भावना का त्याग करके और स्वस्थचित्त होकर अपने आत्मानन्द में ही सदा मग्न रहता है ॥ ४२ ॥ मूलम् । शुद्धमद्वयमात्मानं भावयन्ति कुबुद्धयः । न तु जानन्ति संमोहाद्यावज्जीवमनिर्वृताः ॥ ४३ ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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