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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
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वास्ते वह ब्रह्म को नहीं प्राप्त होता है । और जिस धीर ने अपने को ज्ञानी निश्चय कर लिया है, वह मोक्ष की नहीं इच्छा करता हुआ भी मोक्ष को प्राप्त होता है ।। ३७ ।।
मूलम् । निराधारा ग्रहव्यग्रा मूढाः संसारपोषकाः । एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः ॥ ३८ ॥ पदच्छेदः ।
निराधाराः, ग्रहव्यग्राः, मूढाः, संसारपोषकाः, एतस्य, अनर्थमूलस्य, मूलच्छेदः कृतः, बुधैः ॥
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
निराधाराः = आधार - रहित ग्रहव्यग्राः = दुराग्रही मूढा:-अज्ञान
संसारपोषका:= { संसार के पोषण
हैं
एतस्य = इस
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
अनर्थमूलस्य = अनर्थ-रूप मूलवाले संसारस्य = संसार के
मूलच्छेदः = मूल का नाश
बुधैः ज्ञानियों करके कृतः = किया गया है ॥
भावार्थ ।
जो मूढ़ अज्ञानी है, उसका ऐसा ख्याल है कि मैं वेदान्त-शास्त्र और आत्मवित् गुरु के आधार के विना ही केवल चित्त के निरोध से ही मोक्ष को प्राप्त हो जाऊँगा, ऐसा दुराग्रही पुरुष संसार से छुड़ानेवाला जो ज्ञान है, उससे पराङमुख होता है, इस संसार के मूलाज्ञान को वह छेदन नहीं कर सकता है ॥ ३८ ॥