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________________ ३११ अठारहवाँ प्रकरण । तथाच-न कर्मणा न प्रजया न धनेन । कर्मों करके, प्रजा करके, धन करके, पुरुष मोक्ष को कदापि प्राप्त नहीं होता है, परन्तु जिसका अविद्या-मल दूर हो गया है, वह केवल विज्ञान-मात्र करके मोक्ष को प्राप्त हो जाता है ।। ३६ ॥ मूलम् । मूढो नाप्नोति तद्ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति । अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्म स्वरूपभाक् ॥ ३७ ॥ पदच्छेदः । मूढः, न, आप्नोति, तत्, ब्रह्म, यतः, भवितुम्, इच्छति, अनिच्छन्, अपि, धीरः, हि, परब्रह्मस्वरूपभाक् ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः । शब्दार्थ। न आप्नोति-नहीं प्राप्त होता है धीरः ज्ञानी ब्रह्म-ब्रह्म हि-निश्चय करके भवितुम्-होने को अनिच्छन्अपि-नहीं चाहता हुआ भी इच्छति-इच्छा करता है परब्रह्मस्वरूप- परब्रह्म-स्वरूप का ततः उसी कारण भाक् । भजनेवाला सान्वह तत्-उसको अर्थात् ब्रह्म को । भवति होता है । भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! अज्ञानी मूढ़ चित्त के निरोध करने से ब्रह्म-रूप होने की इच्छा करता है, इसी यत::जिस कारण मूढः अज्ञानी
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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