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अठारहवाँ प्रकरण ।
२९१ देखा है, उसी को ऐसा अनुभव है "अहं ब्रह्म" मैं ब्रह्म हूँ। को सारा जगत् ब्रह्म-रूप दिखाई देता है, और वह सर्व चिता से रहित होकर कुछ भी चिन्तन नहीं करता है।
और जो ब्रह्म का चिंतन है कि मैं ब्रह्म हूँ, उसको भी वह अभ्यास नहीं करता है ।। १६ ॥
मूलम् । दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ । उदारस्तु न विक्षिप्तःसाध्याभावात्करोति किम् ॥१७॥
पदच्छेदः । दृष्टः, येन, आत्मविक्षेपः, निरोधम्, कुरुते, तु, असौ, उदारः, तु, न, विक्षिप्त:, साध्याभावात्, करोति, किम् ॥ अन्वयः । शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । येन-जिस पुरुष द्वारा आत्मविक्षेपः आत्मा में विक्षेप न विक्षिप्तः विक्षेप रहित है दृष्टः देखा गया है
+ अतः एव इसलिये असौ-वह पुरुष
साध्याः साध्य के अभाव निरोधम्-चित्त के निरोध को
भावात् । होने के कारण
सः वह करोति करता है
किम क्या तु-परन्तु
करोति=
मि/ करेगा अर्थात् कुछ उदारः-ज्ञानी पुरुष
भी न करेगा ॥ भावार्थ । जिस पुरुष ने अपने में विक्षेपों को देखा है, वही विक्षेपों के दूर करने के लिये चित्त के निरोध की चिंता
तु-तो