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________________ २९० अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० भावार्थ । जिसने इस विश्व को अर्थात् जगत् को देखा है, वह यह नहीं कह सकता है कि जगत् है नहीं क्योंकि उसको जगत् होने और न होने की वासनाएँ बनी हैं, और जो निर्वासनिक पुरुष है, वह जगत् को देखता हुआ भी नहीं देखता है । क्योंकि वह सुसुप्ति-युक्त पुरुष की तरह मन के संकल्प और विकल्प से रहित है ।। १५ ।। मूलम् । येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत् । कि चिन्तयति निश्चिन्तो द्वितीयं यो न पश्यति ॥१६॥ पदच्छेदः । येन, दृष्टम्, परम्, ब्रह्म, सः, अहम्, ब्रह्म, इति, चिन्तयेत्, किम्, चिन्तयति, निश्चिन्तः, द्वितीयम्, यः, न, पश्यति ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ। येन-जिस पुरुष द्वारा यः जो पुरुष परम् श्रेष्ठ निश्चिन्तः निश्चिन्त हुआ ब्रह्म-ब्रह्म द्वितीयम्-दूसरे को इष्टम् देखा गया है न पश्यति नहीं देखता है सःअहम् सो मैं ब्रह्म हूँ सः वह ___ इति-ऐसा कि चिन्तयति-क्या चिन्ता करेगा। चिन्तयेत्-विचार करे भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि जिस पुरुष ने सबसे अलग ब्रह्म को
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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