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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
मूलम् ।
मनःप्रकाशसंमोहस्वप्नजाड्य विवर्जितः । दशां कामपि संप्राप्तो भवेद्गलितमानसः ॥ २० ॥
२७२
पदच्छेदः ।
मनः प्रकाशसं मोहस्वप्नजाडयविवर्जितः, दशाम्, काम,
अपि संप्राप्तः भवेत्, गलितमानसः ।
1
अन्वयः ।
गलितमानसः
-
शब्दार्थ |
मनः प्रकाश
संमोहस्वप्न - जाड्यविवजितः
{गलत हुआ है
जिसका, ऐसा ज्ञानी
मन के प्रकाश से चित्त की शान्ति से = स्वप्न और जड़ता
अर्थात् सुषुप्ति से वर्जित होता हुआ
अन्वयः ।
-10:--
अपि =भी
काम किस अनिर्वचनीय
|दशाम् = दशा की
संप्राप्तः = प्राप्त
शब्दार्थ |
भवेत् = होता है |
भावार्थ ।
हे शिष्य ! गलित हो गई है अन्तःकरण की वृत्ति जिसकी, अर्थात् जिस विद्वान् के मन के सङ्कल्प विकल्पादिक नहीं करते हैं, और दूर हो गया है स्त्री-पुत्रादिकों से मोह जिसका, अन्तरात्मा की तरफ है चित्त का प्रवाह जिसका, और जो जड़ता से रहित है, अपने आत्मानन्द में सदैव ही स्थित है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है ।। २० ।। इति श्रीअष्टावक्रगीतायां सप्तदशकं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १७ ॥