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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
अन्वयः ।
पदच्छेदः । अहम्, कर्त्ता, इति, अहंमानमहाकृष्णाहिदंशितः, न, अहम्, कर्ता, इति, विश्वासामृतम्, पीत्वा, मुखी, भव ॥ ___शब्दार्थ । | अन्वयः ।
___शब्दार्थ । अहम्-मैं
न कर्ता नहीं कर्ता हूँ। कर्ता-करता हूँ
इति-ऐमे इति-ऐसे
विश्वा- 1 विश्वासरूपी अमृत
सामृतम् । को अहंमान-) अहंकार-रूपी अत्यंत महाकृष्णा- कृष्ण वर्णवाले सर्प से पीत्वा-पी करके हिदंशितः) दंशित हुआ तू। सुखी-मुखी अहम् मैं
भव-हो ।।
भावार्थ । हे जनक ! “अहं कर्ता" मैं इस कर्म का कर्ता हूँ, एवं मैं इसके फल को भोगूंगा, यह जो अहंकार-रूपी काला सर्प है, इसी करके डसा हुआ, सारा संसार जन्म-मरण-रूपी चक्र में पड़कर भटकता रहता है और तू भी इस अहंकार-रूपी सर्प करके डसा हुआ, अपने को कर्ता और भोक्ता मानता है। उस अहंकार-रूपी सर्प के विपके उतारने के लिये "नाहं कर्ता" मैं कर्त्ता नहीं हूँ, जब ऐसे निश्चयरूपी अमृत को तू पान करेगा, तब तू सुखी होवेगा। अन्यथा किसी प्रकार से भी तू सुखी नहीं हो सकता है ॥८॥
जनकजी कहते हैं कि पूर्वोक्त अमृत को मैं कैसे पान करूँ ? इसके उत्तर को कहते हैं
मूलम् । एको विशुद्धबुद्धोऽहमिति निश्चयवह्निना । प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव ॥९॥