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ते-तेरा
बन्धः बन्धन है हिजो
सर्वदा = निरंतर
पहला प्रकरण ।
मुक्तप्रायः = अत्यन्त मुक्त असि तू है
अयम्=यह
+ त्वम्=तु
इतरम् = दूसरे को
द्रष्टारम् द्रष्टा पश्यसि = देखता है ||
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भावार्थ |
हे राजन् ! तू ही एक सच्चिदानन्द और परिपूर्णरूप से सबका द्रष्टा है और सर्वदा मुक्त स्वरूप है । तेरे में तीनों काल में बंध नहीं है । जैसे सूर्य में तीनों काल में तम नहीं है, वैसे तू ही स्वयंप्रकाश और समस्त जगत् का द्रष्टा है । और जो तू अपने को द्रष्टा न जानकर अपने से भिन्न किसी को द्रष्टा मानता है, यही तेरे में बन्ध है ॥७॥
जी कहते हैं कि हे भगवन् ! सारे संसार में सब लोग अपने से भिन्न कर्मों का साक्षी और द्रष्टा मानते हैं और अपने को कर्मों का कर्ता मानते हैं, तब फिर वे सब ऐसा क्यों मानते हैं ? और अपने से भिन्न द्रष्टा और कर्मों के फल के प्रदाता को क्यों मानते हैं ?
उत्तर - अष्टावक्रजी कहते हैं कि जो संसार में अज्ञानी मूर्ख हैं वे अपने से भिन्न द्रष्टा को और कर्मों के फलप्रदाता को मानते हैं और अपने कर्मों का कर्ता और फल का भोक्ता मानते हैं, ज्ञानवान् ऐसा नहीं मानते हैं ।
मूलम् । अहं कर्त्तेत्यहंमानमहा कृष्णाहिदंशितः ॥
नाहं कर्त्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखी भव ॥८॥