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[५.२] चारित्र
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नहीं करना है विकास आत्मगुणों का प्रश्नकर्ता : जो आत्मा के गुणों का विकास करे वही ज्ञान है और बाकी का सब अज्ञान कहलाएगा न?
दादाश्री : आत्मा के गुणों का विकास करना ही नहीं है। वह खुद विकसित ही है। आत्मा तो परमात्मा ही है। हम क्या उसके गुणों का विकास करेंगे!
प्रश्नकर्ता : ज्ञान, दर्शन और चारित्र, ये आत्मा के गुण हैं तो उनका विकास करेंगे तभी परमात्मा पद की प्राप्ति होगी न!
दादाश्री : उसका विकास नहीं, वह तो संपूर्ण है। अनंत ज्ञानमय है। उसका विकास करना ही नहीं है। ऐसा तो क्रमिक मार्ग में सिखाते हैं। ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र, ये तो व्यवहार हैं, वास्तविक चीज़ है ही नहीं। इस व्यवहार पर से निश्चय में जाना है। व्यवहार से अगर कुछ समकित हो जाए तो फिर उसे आगे के निश्चय की लिंक मिलेगी। जब तक समकित नहीं हो जाता तब तक निश्चय की लिंक नहीं मिल सकती।
व्यवहार चारित्र प्रश्नकर्ता : अब ज्ञान, दर्शन और चारित्र एक व्यवहार में और एक निश्चय में दोनों अलग-अलग हैं। निश्चय में रियल है और व्यवहार में रिलेटिव है। व्यवहार में तो साधु, आचार्यों सभी का व्यवहार चारित्र कहलाता है। वे यदि भगवान के कहे अनुसार चलेंगे तो, वर्ना व्यवहार में भी चारित्र नहीं कहा जाएगा।
अब, व्यवहार में चारित्र का मतलब क्या है ? लोगों को दुःख नहीं देना, अहिंसा धर्म का पालन करना, जिस धर्म में अहिंसा का उपदेश लिखा हुआ हो, वह व्यवहारिक ज्ञान कहलाएगा। अहिंसा कम हो तो कम ज्ञान, अधिक हो तो अधिक ज्ञान। जितनी उसमें अहिंसा हो। हर एक धर्म में अहिंसा की कुछ न कुछ बात तो रहती है। किश्चियन धर्म में भी इंसानों को मारकर खाने के लिए मना किया गया है।