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________________ ३०० आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) परम उपकारी पर किंचित्मात्र राग नहीं और परम उपसर्ग करने वाले पर किंचित्मात्र द्वेष नहीं, ऐसे वीतराग चारित्र को जानना है। वह है विपरीत ज्ञान... प्रश्नकर्ता : आत्मा का जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र है, उसमें अलग-अलग विभाग नहीं हैं? दादाश्री : नहीं। आत्मा का तो वहाँ पर (तीनों) एक ही है। आत्मा का तो, वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, इन सब का सम्मिलित स्वरूप ही आत्मा है। लेकिन ये अलग-अलग हैं इसीलिए सभी रास्ते पार करतेकरते आता है न! तो पहले उसे दर्शन समझ में आता है उसके बाद ज्ञान को समझता है और फिर चारित्र। अतः सभी को अलग-अलग समझता है। लेकिन मूल रूप से तीनों एक ही हैं। लेकिन समझने के लिए विस्तार से ये सब बातें की गई हैं ताकि सामने वाले को समझ में आ जाए कि दर्शन क्या है वगैरह वगैरह... क्योंकि खुद ज्ञाता-दृष्टा रहता है। खुद ही ज्ञाता-दृष्टा है, अर्थात् ज्ञान और दर्शन खुद ही है। और परमानंद उसका चारित्र है। प्रश्नकर्ता : वह उसका परिणाम है? दादाश्री : वह परिणाम है लेकिन वही चारित्र है। प्रश्नकर्ता : ज्ञान, दर्शन और चारित्र में शुरुआत दर्शन से होती है? दादाश्री : वह तो संसार की अपेक्षा से है। बाकी वहाँ पर इनमें कुछ अलग-अलग है ही नहीं। यह तो संसार में पड़ा हुआ है इसलिए। उसका दुःख है। वह जो दर्शन उल्टा है उसे सीधा कर देना पड़ेगा। दर्शन सीधा कर देंगे तब जो ज्ञान उल्टा है, वह ज्ञान सीधा हो जाएगा और फिर जो चारित्र उल्टा है, वह चारित्र सीधा हो जाएगा। संसार में ये जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं, वे सभी चारित्र कहलाते ज़रूर हैं लेकिन वे उल्टे ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं। सीधे ज्ञान, दर्शन और चारित्र नहीं हैं वे। उल्टे अर्थात् विपरीत और सीधे अर्थात् सम्यक् ।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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