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________________ २८६ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) ज़रा सा भी दुःख नहीं हो, ऐसा वर्तन होता है। दुःख देने वाले को भी दु:ख नहीं हो, ऐसा वर्तन व्यवहार चारित्र कहलाता है। और विषय बंद हो जाना चाहिए। व्यवहार चारित्र में मुख्य दो चीजें कौन सी हैं ? एक विषय बंद। कौन सा विषय? तो कहते हैं, स्त्री चारित्र विषय। और दूसरा क्या? लक्ष्मी से संबंधित। जहाँ लक्ष्मी हो वहाँ पर चारित्र हो ही नहीं सकता। प्रश्नकर्ता : 'जहाँ लक्ष्मी हो, वहाँ चारित्र नहीं हो सकता', वह कैसे? दादाश्री : वहाँ चारित्र कहलाएगा ही नहीं न! लक्ष्मी आई यानी लक्ष्मी से तो पूरा व्यवहार करना होता है। हम लक्ष्मी नहीं लेते। प्रश्नकर्ता : लेकिन उससे दुर्व्यवहार भी होता है और सद्व्यवहार भी होता है न! दादाश्री : नहीं, वह तो सद् करने से ही दुर्व्यवहार शुरू हो जाता है। सद् भी नहीं और असद् भी नहीं, ऐसा व्यवहार ही नहीं। मैंने पच्चीस सालों से किसी भी प्रकार का पैसों का व्यवहार किया ही नहीं है न ! झंझट ही नहीं न! मेरी जेब में कभी चार आने भी नहीं होते। नीरू बहन ही सारी व्यवस्था करती हैं। और सच्चा चारित्र तो किसे कहेंगे कि खाते-पीते हुए भी ज्ञातादृष्टा रहे। वही सच्चा चारित्र है। आत्मा निज स्वभाव में, ज्ञाता-दृष्टा में आ जाए, वह सच्चा चारित्र। उस चारित्र के बिना मोक्ष नहीं है। 'आत्मा' ज्ञाता-दृष्टा है। 'आप' ज्ञाता-दृष्टा पद में रहो, वही चारित्र है और वही मोक्ष का कारण है। मोक्ष अर्थात् सर्व दु:खों से मुक्ति का कारण और ऐसा मोक्ष हुए बगैर निर्वाण नहीं हो सकता। निर्वाण अर्थात् आत्यंतिक मुक्ति । चारित्र की यथार्थ परिभाषा प्रश्नकर्ता : निश्चय चारित्र के बारे में एक वाक्य में बताइए न?
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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