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[४] ज्ञान-अज्ञान
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शुद्ध ज्ञान का स्वभाव ही ऐसा है कि किसी को टच ही नहीं करता, निर्लेप रहता है! अज्ञान के साथ भी ज्ञान निर्लेप रहता है। ज्ञान क्रिया में भी एकाकार नहीं होता, निर्लेप ही रहता है ! किसी को स्पर्श नहीं करता, बाधक नहीं है, वही आत्मा कहलाता है। अंधकार को भी बाधक नहीं है, अज्ञान के अंधकार को भी बाधक नहीं है वह। अज्ञान उसके लिए बाधक है। वह खुद किसी के लिए बाधक नहीं है, वह परमात्मा है। दीये जैसी बात है न!
महात्माओं के लिए 'स्वरूप ज्ञान' में रहने की चाबी
ज्ञान ही सुख है, ज्ञान ही आत्मा है, ज्ञान ही केवलज्ञान है, ज्ञान ही मोक्ष है। अतः ज्ञान में रहना है। ज्ञान में कब रह पाएँगे? चंदूभाई को पहचान लेंगे तो ज्ञान में रह पाएँगे। हम चंदूभाई को पूर्ण रूप से पहचान लें कि, फलानी जगह पर ज़रा टेढ़े हैं, फलानी जगह पर सीधे हैं, पूरा अच्छी तरह से पहचान लें। भगवान ने इतना ही कहा है कि ज्ञेय को जानो। प्रथम ज्ञेय कौन सा है? तो वह है पड़ोसी। स्थूल संयोग, सूक्ष्म संयोग और वाणी के संयोग पर हैं और पराधीन हैं, उन्हें जानो। वे ज्ञेय है और आप ज्ञाता हो।
जो अज्ञान में न घुसने दे, वही ज्ञान कहलाता है। चंदूभाई वकालत करते हुए किसी से बात कर रहे हों तो उसमें वास्तव में तो वह अज्ञान ही है क्योंकि वह नियम के अनुसार नहीं है न! अनियम और नियम, दोनों ही अज्ञान हैं लेकिन 'आप' उसमें चले नहीं जाते, 'आप' देखते रहते हो।
अंदर से अज्ञान खड़ा होते ही ज्ञान हाज़िर हो जाता है कि यह चूरण खा लूँ? तब वह ज्ञान हाज़िर हो जाता है, 'अरे, इससे तो मर जाएगा'। वह ज्ञान हाज़िर हो जाएगा तो फिर रुक जाएगा।
प्रश्नकर्ता : वह जो ज्ञान हाज़िर होता है, वह प्रज्ञा का भाग है? दादाश्री : हाँ, प्रज्ञा का!
प्रश्नकर्ता : आपने ज्ञान दिया तो अज्ञान का आवरण तो चला गया तो अब कौन से आवरण बचे हैं ?