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________________ [४] ज्ञान-अज्ञान २२९ दादाश्री : सिनेमा में मन सहयोग देता है इसलिए फिर वह स्लिप हो जाता है। वह नीचे अधोगति में जाता है। वह अच्छा लगता है। हेल्प नहीं करता न, यों ही स्लिप होता जाता है। चढ़ने में मेहनत, ध्येयपूर्वक जाने में मेहनत करनी पड़ती है जबकि यहाँ नीचे जाने में स्लिप होता जाता है। उतरना नहीं पड़ता। स्लिप ही हो जाता है अपने आप ही स्लिप हो जाता है। आपको कभी स्लिप नहीं किया होगा न, किया है ? प्रश्नकर्ता : ऐसा होता है न कि संयोगाधीन न आ पाएँ! दादाश्री : लेकिन वे संयोग किसके अधीन हैं ? आप तो कहकर छूट गए कि संयोगों के अधीन नहीं आ पाए। बात भी सही है, सौ प्रतिशत सही है लेकिन संयोग किसके अधीन है? प्रश्नकर्ता : अपने कर्मों के अधीन हैं। दादाश्री : तो कर्म किसके अधीन है ? प्रश्नकर्ता : आप समझाइए, मुझे पता नहीं चलता। दादाश्री : ऐसा है न, हम अभी जो हैं न, तो वस्तुतः हम वास्तव में क्या हैं? हम यह नाम रूपी नहीं हैं। हम व्यवहार रूपी नहीं हैं। तो वास्तव में हम क्या हैं? जितना अपना ज्ञान और जितना अपना अज्ञान है, उतना ही, वही हम हैं । जैसा ज्ञान होता है उसी अनुसार संयोग मिलते हैं। अज्ञान होता है तो उसके अनुसार संयोग मिलते हैं। ज्ञान-अज्ञान के अनुसार संयोग मिलते हैं। प्रश्नकर्ता : और उस ज्ञान-अज्ञान के अनुसार कर्म बंधते हैं ? दादाश्री : हाँ। उस अनुसार कर्म बंधते हैं और उसी हिसाब से ये सभी संयोग मिलते हैं। उच्च व्यक्ति उच्च प्रकार के कर्म बाँधता है, क्योंकि उसका ज्ञान उच्च प्रकार का है। हलका व्यक्ति निम्न प्रकार के कर्म बाँधता है। यानी कि वह ज्ञान और अज्ञान के हिसाब से बाँधता है। तो क्या वह उसके हाथ में है ? नहीं! वह, वह खुद ही है। वह खुद यह नाम नहीं है, वह खुद अहंकार नहीं है। वह खुद 'यह' है।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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