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________________ २२६ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) दादाश्री : वर्ना नहीं। अतः इस विशेष ज्ञान में अहंकार की ज़रूरत है। हमें यह ज्ञान जान लेना हैं कि 'मैं खुद कौन हूँ'। फिर वह ज्ञान अपने आप ही काम करता रहेगा। आपको कुछ भी नहीं करना है। ज्ञान ही काम करता रहेगा। हमें तो कुछ भी नहीं करना है। जान लेना है और समझ लेना है। स्थिति तब की, जब सूरत स्टेशन पर ज्ञान हुआ था प्रश्नकर्ता : आपने कहा कि 1958 में आपको सूरत स्टेशन पर ज्ञान हुआ था। उससे पहले आपकी स्थिति क्या थी? दादाश्री : अरे! अहंकारी, पागल स्थिति, बंधन वाला। उस बंधन दशा को मैंने देखा है। मुझे ऐसा ध्यान में है कि बंधन दशा ऐसी होती है और इस मुक्त दशा के भान को भी मैं जानता हूँ। प्रश्नकर्ता : वह ज्ञान आपको किस प्रकार से हुआ? दादाश्री : वह तो सभी साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स, सभी संयोग इकट्ठे हो गए थे। इकट्ठे होते हैं तब हो जाता है। वह किसी को ही होता है, वर्ना नहीं होता। वह चीज़ नहीं हो सकती। ऐसा हो जाएगा, ऐसा तो मैंने सोचा ही नहीं था। प्रश्नकर्ता : जब आपको ज्ञान हुआ था, उस समय की स्थिति के बारे में कुछ बताएँगे हमें? दादाश्री : स्थिति तो यही की यही। उसका कोई तरीका-वरीका नहीं होता। अरे... अंदर आवरण टूट जाते हैं। अंदर आवरण खुल जाते हैं। आप उलझन में पड़े हुए हों तब अंदर सूझ पड़ती है या नहीं पड़ती? आवरण टूटते हैं इसीलिए सूझ पड़ जाती है। उसी प्रकार जब ये आवरण टूट गए तो इन सब बातों का पता चल गया कि, 'यह जगत् कौन चलाता है, किस तरह चलता है, मैं कौन हूँ, ये कौन है'। तो जितना बताया जा सकता है, उतना ही बता रहा हूँ। बाकी सब तो अनुभव है, उसे जब
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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