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________________ १९० आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध) दादाश्री : वह पुद्गल का ही एक भाग है । प्रश्नकर्ता : ज्ञाता-दृष्टा रहे तो फिर प्रतिक्रमण करने की जो बात है, उसका तो कोई अर्थ ही नहीं है न ? दादाश्री : अर्थ ही नहीं है । ज्ञाता - दृष्टा रहना और प्रतिक्रमण ? ! यह तो अगर जब ज्ञाता - दृष्टा कच्चा रह जाए न... प्रश्नकर्ता : तब प्रतिक्रमण करना है ? दादाश्री : हाँ, लेकिन वह प्रतिक्रमण भी हमें खुद को नहीं करना है। यह अक्रम विज्ञान है न, इसलिए कषाय ज़रा भारी हैं। अब अगर चंदूभाई ने किसी को डाँटा और ऐसा डाँटा कि सामने वाले को दुःख हो गया तो आपको चंदूभाई से कहना है, कि ' भाई आपने अतिक्रमण क्यों किया? इसलिए अब प्रतिक्रमण करो' । हमें प्रतिक्रमण नहीं करना है। प्रश्नकर्ता : ज्ञाता-दृष्टा में ज़रा उलझन रहती है । ज्ञाता-दृष्टा तो आत्मा का भाग है और प्रतिक्रमण पुद्गल को करना है ? दादाश्री : हाँ, पुद्गल का भाग है। अतिक्रमण पुद्गल का है और प्रतिक्रमण भी पुद्गल का है I प्रश्नकर्ता : हाँ। इतना अगर समझ में आ जाए तो फिर बहुत उलझन नहीं रहती। करता है पुद्गल, और मानता है 'मैंने किया ' दादाश्री : जिसने मैला किया वह भी पुद्गल है और जो साफ करता है वह भी पुद्गल ही है । यह जो मैला कर रहा था, वह पुद्गल कर रहा था तब भी आप कहते थे कि 'मैंने किया' । अब साफ करते समय भी पुद्गल ही करता है लेकिन फिर आप कहते हो कि 'मैंने किया' तो फिर से हिसाब में आ जाते हो। इसलिए साफ करने वाला और मैला करने वाला और गंदा करने वाला, ये सभी हम खुद नहीं हैं। गंदा करते समय ‘मैं नहीं हूँ', ऐसा नहीं कहा था, इसीलिए तो ऐसा हुआ। अब साफ करते समय ऐसा कहेंगे कि 'मैं नहीं हूँ' तो छूट जाएँगे।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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