________________
१७०
आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
स्पष्ट परिभाषाएँ वीतरागता की प्रश्नकर्ता : भगवान महावीर की वीतरागता अन्य वीतरागों की वीतरागता से किस प्रकार से भिन्न है ?
दादाश्री : किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं है, वीतरागता में कोई अंतर नहीं है। वीतरागता रखने वाले में अंतर है।
प्रश्नकर्ता : वीतरागता मनोदशा है या आंतरिक स्थिति?
दादाश्री : वीतरागता मनोदशा भी नहीं है और आंतरिक स्थिति भी नहीं है, वह ज्ञान दशा है। उसकी खुद की ज्ञान दशा है यह। यह ज्ञान का परिणाम है।
प्रश्नकर्ता : वीतरागता आत्मपुरुषार्थ द्वारा अचीव (सिद्ध) की हुई स्थिति है या कुदरती रचना का अंश है?
दादाश्री : वह आत्मपुरुषार्थ द्वारा प्राप्त की गई स्थिति है। कुदरती रचना का अंश नहीं है। कुदरती रचना से तो नींबू उगते हैं, अमरूद उगते हैं, अनार उगते हैं, वीतराग नहीं बनते। किसी जगह पर वीतरागता का पेड़ नहीं है कि उसका फल हर बार एक जैसा ही आएगा।
प्रश्नकर्ता : यानी कुदरती रचना में ऐसा कोई संयोग खड़ा हो और हम वीतराग हो जाएँगे या फिर पुरुषार्थ से ही हुआ जा सकता है?
दादाश्री : नहीं, कुदरती रचना का इससे कोई लेना-देना है ही नहीं। पुरुषार्थ के बिना वीतरागता नहीं आ सकती क्योंकि प्रकृति और पुरुष दोनों को अलग कर दिया है। इसके बाद आप जितना इन आज्ञाओं में रहने का पुरुषार्थ करोगे उतनी ही वीतरागता उत्पन्न होगी। प्रकृति और आत्मा के अलग हुए बिना तो आत्मपुरुषार्थ हो ही नहीं सकता। दूसरा, इस संसार के लोगों का जो पुरुषार्थ है, वह भ्रांत पुरुषार्थ है।
प्रश्नकर्ता : वीतरागों के विज्ञान की प्राप्ति में संकल्प का कुछ योगदान है?