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[२.५] वीतरागता
१६९ सम्यक् दर्शन और आत्मसाक्षात्कार प्रश्नकर्ता : सम्यक् दर्शन और आत्मसाक्षात्कार दोनों एक ही चीज़ हैं?
दादाश्री : हाँ एक ही। इनमें बिल्कुल भी फर्क नहीं है। सम्यक् दर्शन का मतलब साक्षात्कार ही है। जो भौतिक को देख रहे थे, उन्होंने इस अविनाशी को देखा। अभी तक भौतिक और विनाशी को देख रहे थे, उसी पर प्रेम था। इस पर प्रेम उत्पन्न हुआ तो अविनाशी को देखा। अविनाशी को देखा तो वीतराग हो गया।
प्रश्नकर्ता : यानी कि सम्यक् दर्शन और वीतराग दोनों के बीच में फर्क है?
दादाश्री : सम्यक् दर्शन वीतरागता की शुरुआत है, बिगिनिंग है। और फिर जितनी-जितनी वीतरागता उत्पन्न होती है, उतनी ही वह बढ़ती जाती है और संपूर्ण वीतरागता अंतिम पद है। संपूर्ण वीतरागता को केवलज्ञान कहा जाता है।
क्या प्रतिष्ठित आत्मा वीतराग बन सकता है?
प्रश्नकर्ता : तो जो जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है, उसका वर्तन, विचार और वाणी कैसे होते हैं ? ।
दादाश्री : राग-द्वेष रहित होते हैं। वह गालियाँ दे तब भी राग-द्वेष नहीं होते। वह धौल लगाए तो भी राग-द्वेष नहीं होते। जबकि अज्ञानी अगर धौल नहीं लगाए तो भी उसे राग-द्वेष रहते हैं। अतः उनका वर्तन राग-द्वेष रहित होता है ! भय रहित ! निर्भयता होती है!
प्रश्नकर्ता : प्रतिष्ठित आत्मा भी वीतराग बन सकता है?
दादाश्री : नहीं, वह पावर आत्मा है। वीतरागता के गुण आते हैं। वास्तव में वह वीतराग है नहीं। वीतरागता की पावर आ जाती है। महावीर भगवान में थी ही ना!