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[२.१] राग-द्वेष
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से देख पाता है फिर भी मूर्छा नहीं होती लेकिन यदि प्रकाश न हो और देखे कि तुरंत ही मूर्छा आ जाती है उसे। साड़ी देखी कि घर आकर उसे याद आती रहती है कि वह वाली साड़ी अच्छी थी न! वह साड़ी में खो जाती है। जबकि यह ज्ञान मिलने के बाद प्रकाश मिला है इसलिए उसे मूर्छा नहीं होती। मूर्छा कम हो गई है न?
प्रश्नकर्ता : चीज़ देखते हैं लेकिन उसकी इच्छा नहीं होती।
दादाश्री : हाँ! अर्थात् मूर्छा नहीं होती। यह प्रकाश मूर्छा नहीं करवाता। अरे, राग-द्वेष वाला सभी कुछ देखते हैं, ऐसे देखते हैं, वैसे देखते हैं। ऐसे उलट-पलटकर देखते हैं, वैसे उलट-पलटकर देखते हैं लेकिन मूर्छा नहीं होती है। आत्मा, आत्मा की जगह पर और वे उनकी जगह पर। जबकि (अज्ञान दशा में) मूर्छा आने पर आत्मा पूरा ही उसमें घुस जाता है।
प्रश्नकर्ता : जो मूर्छा आती है, क्या वह प्राकृतिक स्वभाव की मूर्छा है?
__दादाश्री : हाँ, प्राकृतिक स्वभाव की मूर्छा है। हमने उसे चारित्रमोह कहा है अर्थात् पहले का जो मोह भरा हुआ है, वही आज प्रकट हुआ। उसका हम ज्ञान द्वारा समभाव से निकाल करते हैं। समभाव से निकाल करना, उसी को कहते हैं ज्ञान से निकाल कर देना। आँखें यों आकर्षित होती हैं लेकिन उसी के साथ ज्ञान हाज़िर हो जाता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए तो उससे खत्म हो जाता है। यह ज्ञान मूर्छा को खत्म किए बगैर नहीं रहता, लेकिन चारित्रमोह तो रहता ही है।
प्रश्नकर्ता : वह सारा व्यवस्थित है क्या? दादाश्री : हाँ, व्यवस्थित है।
जो राग-द्वेष रहित है, वह है अहिंसक प्रश्नकर्ता : कौन सी स्टेज में होने वाले राग हिंसा हैं ?