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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
जब वह मैल निकल जाता है तब टीनोपॉल का मैल चढ़ता है। यह शुद्ध सत्संग है इसलिए मैल नहीं चढ़ता। अब राग-द्वेष नहीं होते न? तो हो चुका!
इन्द्रियों से देखते हैं, जानते हैं, इसके बावजूद भी राग-द्वेष नहीं होते, वह अतीन्द्रिय ज्ञान है और जिसे राग-द्वेष हैं, वह इन्द्रिय ज्ञान से देखता है, जानता है ! इन्द्रिय दृष्टि राग-द्वेष करवाती है, समकित दृष्टि शुद्धात्मा ही देखती है।
ज्ञानप्रकाश को नहीं है मूर्छा प्रश्नकर्ता : यह जो शुद्धात्मा है, वह तो ज्ञान स्वरूप है और प्रकाश स्वरूप है न?
दादाश्री : इस तरह का प्रकाश नहीं है।
प्रश्नकर्ता : नहीं। अलग तरह का प्रकाश लेकिन प्रकाश रूपी शुद्ध चेतन...
दादाश्री : यह तो पर प्रकाशक है। वह ऐसा प्रकाश नहीं है। प्रकाश का मतलब क्या है कि किसी भी चीज़ में मूर्छा उत्पन्न नहीं होने देता। जगत् की सभी चीजें देखता है लेकिन इस जगत् में मूर्छा उत्पन्न नहीं होने दे, ऐसा प्रकाश है। यदि कोई फोर्ट (बोम्बे का एक बाज़ार) में जाए और सभी चीजें देखे तो कितनी चीज़ों के प्रति मूर्छा होती है ?
प्रश्नकर्ता : होती है।
दादाश्री : लेकिन यह प्रकाश मूर्छा नहीं होने देता। जेब में अगर कुछ हो, रुपए हों तब भी लेने का मन नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : देखते रहने का मन करता है।
दादाश्री : नहीं, देखने में हर्ज नहीं है। देखना तो आत्मा का धर्म ही है लेकिन उससे उसे मूर्छा उत्पन्न नहीं होती। इस प्रकाश की वजह