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[२.१] राग-द्वेष
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राग-द्वेष नहीं होते ! बाकी की सब चीज़ों से अब कोई लेना-देना नहीं है। क्रमिक वाले दूसरी क्रियाएँ क्यों बंद कर देते हैं ? क्योंकि क्रियाएँ हैं, इसीलिए राग-द्वेष होते हैं। 'अतः इन क्रियाओं को कम कर दो', जबकि यहाँ पर तो राग-द्वेष होते ही नहीं हैं, फिर क्या बचा? अब अगर ऐसा कहेंगे तो वह उल्टे रास्ते चलने लगेगा। और अगर आज्ञा पालन कर रहा होगा तो वह भी बंद हो जाएगा इसलिए कह नहीं सकते
और फिर (आज्ञा पालन) कम हो जाएगा। अतः ऐसा चलाते रहना पड़ता है।
नहीं है शुद्धात्मा को राग-द्वेष अभी इस ज्ञान के बाद जो राग-द्वेष होते हुए दिखाई देते हैं न, वह आकर्षण और विकर्षण है। वह पुद्गल का गुण है लेकिन मुझे ऐसा हो रहा है' कहा, वही राग है।
और फिर ये राग-द्वेष खुद का स्वभाव नहीं है। आत्मा का स्वभाव राग-द्वेष वाला है ही नहीं। स्वभाव से आत्मा वीतराग है। ये राग-द्वेष तो पुद्गल का स्वभाव है। अर्थात् आकर्षण और विकर्षण पुद्गल का स्वभाव है। पुद्गल के इस स्वभाव को खुद का स्वभाव मानकर खुद ऐसा कहता है कि मुझे राग-द्वेष हो रहे हैं। जब तक यह रोंग बिलीफ है कि 'मैं पुद्गल हूँ, यही मैं हूँ, चंदूभाई ही हूँ' तब तक ऐसा हाल रहेगा और जब 'मैं चंदूभाई हूँ' छूट जाएगा और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' हो जाएगा, तब ऐसा हाल नहीं रहेगा।
जहाँ राग-द्वेष हैं, वहाँ आत्मा नहीं है। जहाँ आत्मा है, वहाँ रागद्वेष नहीं हैं। राग-द्वेष जितने कम आत्मा उतना ही प्रकट हुआ है ! रागद्वेष खत्म तो संपूर्ण आत्मा! यानी कि वीतराग पद दे दिया है। क्या यह कोई ऐसा-वैसा पद है ? यह एक्जेक्ट है। यह विचार करने योग्य नहीं है और अगर चिंता शुरू हो जाए तो समझना कि यह वीतरागता नहीं है। अब आपने इस तरफ का रुख किया है न, तो अब आपको उसके पु-ि ष्ट के कारण मिल आएँगे क्योंकि आप खुद शुद्धात्मा हो। यह बाकी का