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________________ [५] मान : गर्व : गारवता २७५ दादाश्री : उस समय क्या हुआ, उसमें कोई हर्ज नहीं है। अरे, देह का भी प्रतिकार हो गया, तब भी जितनी-जितनी वह शक्ति होती है, उस अनुसार व्यवहार होता है। जिसकी संपूर्ण शक्ति उत्पन्न हो चुकी है, उसका मन का प्रतिकार भी बंद हो जाता है, फिर भी हम क्या कहते हैं ? मन से प्रतिकार चलता रहे, वाणी से प्रतिकार हो जाए, अरे देह से भी प्रतिकार हो जाए, तो तीनों प्रकार की निर्बलता खड़ी हुई तो वहाँ तीनों प्रकार का प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : उदाहरण के तौर पर कोई अपमान करे, तो उसे अंदर से इतना ज़बरदस्त मान खड़ा होता है, खुद के ही सामने त्रागा खड़ा हो जाता है, तो वह उसे कहाँ तक गिराएगा? दादाश्री : गिर ही चुके हैं न! त्रागा हुआ, उसका मतलब गिर ही चुके हैं न! त्रागा हो जाए तो वह सब से अधिक अहितकारी कहलाता है। त्रागा होना तो सब से बड़ा भय ही है। वह संपूर्ण रूप से गिर ही गया है, उससे आगे गिरने का रहा ही नहीं। अपमान की निर्बलता हम तो क्या कहते हैं ? अपमान पसंद नहीं है तो उसमें हर्ज नहीं है लेकिन मान की भीख नहीं रखनी है। प्रश्नकर्ता : लेकिन अपमान का भय, वह कमजोरी तो निकालनी ही है न? दादाश्री : वह तो जैसे-जैसे अपमान खाते जाएँगे, वैसे-वैसे अपमान की कमजोरी कम होती जाएगी। जितना दिया है, वह वापस आता जाएगा। मान की भीख हो तो परेशानी है। प्रश्नकर्ता : ‘अपना अपमान न हो जाए,' यदि वैसा लक्ष (जागृति, ध्यान) में रहे तो, वह क्या कहलाएगा? दादाश्री : अपमान नहीं होने देने के लिए ही वहाँ पर उपयोग रहा करे, संभालता रहे, वह भीख कहलाती है। वर्ना तो चारित्र मोहनीय,
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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