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________________ [५] मान : गर्व : गारवता नहीं है? यों फिर अक्ल लगाकर दिखाया था, उससे फिर वे बच जाते थे। इसलिए फिर वे हमें मान सहित रखते, लेकिन गुनाह हमें लगता था। फिर समझ में आया कि अभानता में ये सभी गुनाह हो जाते हैं, मान खाने के लिए। फिर मान पकड़ में आया । बहुत चिंता होती थी मान की ! प्रश्नकर्ता : आपने मान को पकड़ा, फिर मान को कैसे मारा ? २६३ दादाश्री : मान मरता नहीं है । मान को यों उपशम किया। बाकी, मान मरता नहीं है क्योंकि मारनेवाला खुद ही है, किसे मारेगा ? खुद अपने आपको कैसे मार सकता है ? आपको समझ में आया न ? अर्थात् उपशम किया और जैसे-तैसे दिन बिताए । क्रोध से भी भयंकर है उत्तापना मुझ में बचपन से ही लोभ नहीं था लेकिन मान बहुत भारी था, इसलिए क्रोध भी भारी था ! प्रश्नकर्ता : मान में ज़रा सी भी मगजमारी हुई तो आप कोपायमान हो जाते थे, ऐसा न ? दादाश्री : मान में एक बाल जितनी भी कमी हो जाए न, तो भयंकर उत्तापन होता था और सामनेवाला भी काँप जाता था बेचारा ! ऐसा क्रोध, सामने वाले को जलाकर रख दे ऐसा क्रोध निकलता। ऐसा ज़बरदस्त क्रोध था क्योंकि अन्य कोई लोभ वगैरह नहीं था न ! कई बार तो मेरे क्रोध से, अज्ञानता में मेरा जो क्रोध था वह यदि सचमुच में भभक उठे तो सामनेवाला व्यक्ति वहीं के वहीं मर जाए । एक सिख तो मरने जैसा हो गया था, तो मुझे उसे देखने जाना पड़ा था । जब सिर पर हाथ फेरा तब जाकर ठीक हुआ । यानी हम इस स्थिति में थे । घर पर बहुत रुपये नहीं थे। सिर्फ ऊपर का दिखावा ! उसमें यह परेशानी, बेहद चिंता ! अच्छा लगनेवाला अहंकार दुःखदाई बना जबकि आसपास के लोग क्या कहते थे ? बहुत सुखी इंसान है !
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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