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[४] ममता : लालच
था भी कि टोली जमा दे। एक बार तो हज़ारों लोग इकट्ठे कर लिए थे, क्योंकि चेहरा ज़रा अच्छा था, भव्यता अच्छी थी ! लेकिन उसे मैंने चेतावनी दे दी, “ज़रा सी भी यदि 'दादा' की अधीनता छोड़ेगा तो नर्क में जाएगा। तू शब्द कहाँ से लाएगा ? ये मेरे ही शब्द कहने पड़ेंगे लोगों से। मेरे कहे हुए शब्द ही चलेंगे, लेकिन नए शब्द कहने जाएगा तो नर्क में जाएगा।"
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यों मुझे चेतावनी देनी पड़ती है। ऐसा भी लालच होता है, 'दादा' से स्वतंत्र होने का ! अरे, इसमें भी स्वतंत्र होना है ? स्वतंत्र तो हो गए, क्या परतंत्र हो? यदि मुझसे दबे हुए हो तो बात अलग है। बाहर किसी गुरु से दबे हुए हो, तो वहाँ पर शायद अगर स्वतंत्र होने की कोशिश करो तो बात अलग है। यहाँ दबे हुए नहीं हो, कुछ भी नहीं है, और मैं तो कहता हूँ कि, ‘मैं तो सभी का शिष्य हूँ ।' फिर झंझट किसलिए ? लेकिन अनादि की आदत पड़ी हुई है, स्वतंत्र में मज़ा आता है, 'इन्टरेस्ट' आता है । रख न एक तरफ इन्टरेस्ट को ! इसमें पड़ा रह न, इस सत्संग में ही !
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, स्वंतंत्रता के बजाय 'मैं कुछ जानता ऐसा दिखाने की इच्छा रहती है।
दादाश्री : वही झंझट है न! 'मैं जानता हूँ,' वही सब लेकिन जानता कुछ भी नहीं है ।
रहेगी।
अब एक जन्म अधीनता में बिता दो।
प्रश्नकर्ता : अधीनता से तो अच्छा है न, कोई परेशानी तो नहीं
दादाश्री : हाँ, परेशानी नहीं है । सब अधीनता से ही जीवन बिताते हैं, लेकिन किसी में अंदर जड़ टेढ़ी हो तो अपना रंग दिखाकर रहती है फिर। अलग नगाड़ा बजाता है !
अधीनता, लेकिन ऊपरी नहीं
कईं लोग मुझसे ऐसा कहते हैं कि, 'आप थोड़ी बहुत चाबियाँ