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________________ २२८ आप्तवाणी-९ प्रश्नकर्ता : फिर भी उसे अपमान का दुःख नहीं होता? दादाश्री : ऐसा रहे, तब तो वह लालची नहीं रहेगा न! अधिक लालची को ढीठ कहते हैं लोग! प्रश्नकर्ता : यानी जिसे मान की पड़ी होती है, क्या उसे लालच की नहीं पड़ी होती? दादाश्री : जिसे मान की पड़ी होती है, उसमें बहुत अवगुण नहीं घुसते। अपमान के भय से ही नहीं घुसते। प्रश्नकर्ता : लेकिन मान का लालच घुस जाए तो? दादाश्री : हाँ, वह भी लालच होता है। वही लालच! उसे मान की भीख कहते हैं हम। प्रश्नकर्ता : लेकिन लोभी भी लालची हो सकता है या नहीं? दादाश्री : नहीं। लोभी और लालची में बहत डिफरेन्स है ! लोभी यानी लोभी और लालची यानी लालची ! लोभी मूर्छित नहीं रहता, लालची मूर्छित रहता है। लालची तो खुद का अहित ही करता रहता है, निरंतर अहित करता रहता है। प्रश्नकर्ता : उसे खुद को ऐसा पता चलता है कि यह मैं अहित कर रहा हूँ? दादाश्री : नहीं, ऐसा पता ही नहीं रहता न! भान ही नहीं होता न! अतः लोभी शायद कभी छूट सकता है । सब से पहले कौन छूटता है? मानी। यानी क्रोधवाला। क्रोध और मानवाला सब से जल्दी छूटता है, क्योंकि दोनों ही भोले होते हैं। रास्ते चलते ही कोई कह दे कि बड़े आए छाती फुलाकर घूम रहे हो? लेकिन लोभी को तो खुद को भी पता नहीं चलता कि मुझ में लोभ है। इतना गहन व्यवहार होता है कि मालिक को भी पता नहीं चलता कि मुझमें लोभ है। वह तो हमें बताना पड़ता है!
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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