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आप्तवाणी - ९
दादाश्री : यह तो सभी पोल (गड़बड़) मारते हैं !
अतः पूरा ही जगत् शंका में है, कुछ अपवाद छोड़कर क्योंकि 'आत्मा क्या है', उस पर शंका नहीं होती । संदेह रहा करता है कि,
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'आत्मा ऐसा होगा या वैसा होगा, ऐसा होगा या वैसा होगा ।' ऐसा संदेह होता ही रहता है ! वह संदेह रहा करता है इसलिए फिर जगत् में तरहतरह की दूसरी शंकाएँ खड़ी हो जाती हैं ।
तब जाता है संदेह
प्रश्नकर्ता : संदेह गए हैं ऐसा नहीं कहता, लेकिन मुझमें अंदर से संदेह का उद्भव ही नहीं होता ।
दादाश्री : हाँ, उद्भव नहीं होता, वह बात अलग है। ऐसा कुछ समय तक लगता है लेकिन जब मुश्किलें आती हैं तब वापस संदेह खड़े हो जाते हैं । यह सारा तो बदलेगा । हमेशा एक ही प्रकार का थोड़े ही रहता है? जैसे दिन-रात बदलते रहते हैं, टाइम निरंतर बदलता रहता है, वैसे ही ये अवस्थाएँ निरंतर बदलती रहेंगी!
इंसान का संदेह कब जाता है ? वीतरागता और निर्भय होने के बाद संदेह जाता है। वर्ना संदेह तो जाता ही नहीं है । जब तक शांति रहे, तब तक अनुकूल लगता है लेकिन जब परेशानी आए तब अशांति हो जाती है न! तब वापस अंदर उलझन में पड़ जाता है, और उसी वजह से सारे संदेह खड़े होते हैं ।
'आत्मा' के बारे में शंका किसे ?
प्रश्नकर्ता : श्रीमद् राजचंद्र जी ने आत्मसिद्धि में लिखा है कि,
"आत्मानी शंका करे, आत्मा पोते आप। शंकानो करनार ते, अचरज एह अमाप । "
इसमें आत्मा के बारे में शंका आत्मा करता है या बुद्धि करती है ?
दादाश्री : यह आत्मा के बारे में शंका आत्मा करता है, वह बुद्धि