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________________ १०४ आप्तवाणी-९ है और इससे संबंधित शंका, वह तो बहुत भारी चीज़ है ! यानी कि यह वाक्य बहुत बड़ा है तू 'ऐसा क्यों है? तूने ऐसा क्यों किया?' इस तरह 'मैं-तू', अलग नहीं करते। 'मैं-तू' अपने यहाँ कहा ही नहीं है। अपने इन पचास हज़ार लोगों में 'मैं-तू' कहा ही नहीं है। प्रश्नकर्ता : लेकिन सभी धर्मस्थानकों में 'मैं-तू' के भेद ही देखने को मिलते हैं न? दादाश्री : वही होता है न! और क्या होता है ?! जब तक 'मैं-तू' के भेद हैं, तब तक जीवात्मा हैं। जिसमें 'मैं-तू' अभेद हो गए, वह परमात्मा बन गया। परमात्मा, भला उसमें और कुछ कहाँ से लाते? लेकिन जब तक उसे परमात्मा नहीं बनना होता है, तब तक 'मैं-तू' करता रहता है। ___ अर्थात् जब विपरीत बुद्धि से शंका की होगी, तब भी 'मैं-तू' के भेद नहीं डाले। वर्ना पूरा जगत् तो लड़ाई कर-करके तेल निकाल देता है कि 'तू नालायक है, ऐसा है, वैसा है।' और वैसा सभी जगह पर है ही, 'एवरीव्हेर!' यहाँ के अलावा सब जगह पर है ही! यह अपवाद मार्ग है, हर प्रकार से अपवाद मार्ग है। अन्य सभी जगह तो 'मैं-तू' के भेद डल जाते हैं। प्रश्नकर्ता : हम आप पर शंका करें उसका आपको पता चल जाता है, फिर भी आप भेद क्यों नहीं रखते? दादाश्री : हम जानते हैं कि यह मूली है तो ऐसी ही गंध देगी, यह प्याज़ है, वह ऐसी गंध देगी। ऐसा सब नहीं समझते? फिर अगर वह दुर्गंध दे और उसमें उसे डाँटे तो बुरा नहीं दिखेगा?! वह है ही प्याज, उसमें डाँटने जैसा क्या है ?! मूली में मूली के स्वभाव वाली सुगंधी होती ही है। प्याज़ अगर उस कोने में रखी हो तो वहाँ पर शोर मचाती रहती है तो यहाँ तक गंध आती है वह उसका स्वभाव है। हम समझते हैं कि यह ऐसे स्वभाव का है। ___ हम यदि उल्टा करने जाएँगे तो उस पर से कृपा चली जाएगी जिससे उसका अहित हो जाएगा। जिसका हित करने बैठे हैं, उसी का
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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