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लिए तैयार ही नहीं हो । एकाध बार निष्फल हो जाए तो भी ऐसे कार्यो में दुगुने उत्साह से आगे बढ़ता है । हारा हुँआ जुआरी दुगुने उत्साह से खेलता है, ऐसी स्थिति निर्मित हो उसका ऐसा ही कार्य होता है । बुद्धि भी ऐसी ही होती है जो निष्फलता के मार्ग पर ले जाए, ऐसे कार्यों में ही उद्यम करने में उसे मजा आता है, पर अंत में तो पश्चात्ताप और नुकसान ही होता है।
पदार्थ प्राप्त करने की सतत इच्छा यानि आर्तध्यान प्राप्ति के लिए आरंभ-समारंभ में डूबे रहना वो आर्तध्यान, निष्फलता मिले और दुःखी दुःखी हो जाए वो आर्तध्यान, फायदा होगा इसके विचार मात्र से होने वाला आनंद वो आर्तध्यान, अलग-अलग योजनाएँ बनाने का आर्तध्यान, बारबार वही प्रवृत्ति करने के लिए मन दोडै वो आर्तध्यान, मिला हुआ चला जाए तो महा आर्तध्यान । आर्तध्यान की इस परंपरा में कर्मबंध कर, भवो की परंपरा बढ़ाता ही जाता है । भवाभिनंदी जीवो की कैसी स्थिति है ? ___भाग्ययोग से प्रभु का शासन मिले, चारित्रधर्म और तपधर्म का आराधन करे तो निष्फलता के योग टूटे, आर्तध्यान कम हो । ।
___ चारित्र की आराधना से नए बंधने वाले कर्मो (आश्रव) के प्रति अरुचि होती है । कदाचित् तीव्र कर्म के उदय से प्रवृत्ति भले नहीं बदलाए, तो भी आराधना के प्रभाव से परिणति तो बदलती ही है । ७० भेद की आराधना अंतर में निर्वेद भाव पैदा करती है । फिर संसार की प्रवृत्ति करने के बावजूद रुचि मंद पड़ जाती है, इससे निर्ध्वंसता कम हो जाती है ।
तपधर्म की आराधना से पूर्वबद्ध कर्मो का भान होता है, प्रतीति होती है फिर तपधर्म द्वारा तोड़ने के लिए प्रयत्नशील बनता है ।
___ चारित्र और तप पद के प्रभाव से पूर्वकृत मोहदशा की मंदता के प्रभाव से गलत पकड़ से मुक्त बनकर सत्यमार्ग की ओर गति करते है । किसी की सत्य बात भी गले उतरने लगती है इससे निष्फल प्रवृत्ति से निवृत्त होकर सफल प्रवृत्ति का आदर करता है ।
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा
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