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अज्ञानता है । ज्ञानपद की आराधना इस दोष को नाबूद करती है ।
ज्ञानपद की आराधना से अज्ञानता का नाश होता है, जो भी ज्ञान प्राप्त करते है, उसके मर्म-रहस्य तक पहुँच सकते है । आत्मविश्वास का सही रास्ता मिलता है, तत्व-रुचि प्रकट होती है । अष्ट-प्रवचन माता जितना अल्प ज्ञानी भी तत्व-रुचि आत्म-प्रतीति कराकर आत्मा के अनंत सुख प्राप्ति के मार्ग की ओर प्रयाण कराता है । अहंभाव अपनी मान्यता को ही सही मनवाता है, जानकारी नहीं हो तो भी सब जानता हूँ, ऐसा दिखावा करना यह भ्रमणा ही बड़ा अज्ञान है । श्रीपाल में ऐसी अज्ञानता नहीं थी।
श्रीपाल, श्री मुनिचंद्रसूरीश्वरजी महाराज द्वारा दी गई सिद्धचक्र यंत्र की आराधन विधि नहीं जानते तो पूज्य आचार्यदेव से समझते है और मयणा से सीखते है । खुद को आता है, सब समझ गए, ऐसा दिखावा नहीं करते, सरल भाव से सीखने के लिए तैयार हो जाते है । पत्नि से सीखू ? ऐसा कोई अहं भाव बीच में नहीं आता । उंबर राणा यहाँ कहते है कि, यदि आपको धर्म-क्रिया नहीं आती हो तो सिद्धांत और प्रयोग सीखो । नहीं आता हो तो आने का दावा मत करो । आराधना-धर्मक्रिया के तत्व तक पहुँचो । जो भी योग्य व्यक्ति मिले, उससे सीखने पढ़ने की तैयारी रखनी चाहिए।
समझ और ज्ञानरुपी प्रकाश आएगा, तो अंतर में पड़ा अज्ञान का अंधियारा दूर होगा । आत्म प्रकाश में हेयोपादेय का भान होगा और मोक्षमार्ग साधना सरल बनेगी । श्रीपाल के आलंबन से ज्ञानपद की आराधना द्वारा संसार में भटकाने वाला 'भवाभिनंदी' का 'अज्ञानता' नाम का दुर्गुण दूर करने के लिए प्रयत्नशील बनना है । (८) निष्फलारंभी – निष्फल यानि फल बिना का हित-सार, फायदा रहित निष्फल बने ऐसे ही कार्य करना अच्छा लगता है या ऐसे ही कार्य उसके हाथ से होते है । जो कार्य करे वो उल्टे ही पड़े, कभी सीधे नही उतरे । शुरुआत में सफलता दिखती भी है पर परिणाम निष्फल हो, दीर्घदृष्टि नहीं हो, लम्बा सोचने की आदत नहीं हो । कोई समझाए तो समझने के लिए, सुधरने के
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा