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श्वास-प्रेक्षा
ज्ञाता-द्रष्टा भाव
श्वास-प्रेक्षा ज्ञाता-द्रष्टा भाव को विकसित करने का भी सक्षम उपाय है। हमारी चेतना का मूल धर्म है-जानना और देखना, ज्ञाता भाव और द्रष्टा भाव। हम जब अपने अस्तित्व में होते हैं-आत्मा की सन्निधि में होते हैं, तब केवल जानना और देखना-दो ही बातें घटित होती हैं, किन्तु जब बाहर आते हैं-अपने केन्द्र से हटकर परिधि में आते हैं, तब साथ में और कुछ जुड़ जाता है, मिश्रण हो जाता है। मिश्रण होते ही जानना-देखना छूट जाता है और सोचना, विचारना, चिन्तन करना, मनन करना रह जाता है ! चिन्तन-मनन सत्य की खोज के साधन नहीं हैं। सत्य की खोज के लिए अध्यात्म की चेतना को जगाना होगा। यह द्रष्टाभाव से ही संभव होता है। श्वास को देखना चेतना-जागरण की दिशा में पहला कदम है। सही दिशा में उठाया गया पहला कदम मंजिल तक पहुंचाने वाले अगले कदमों की श्रृंखला का आदि बिन्दु होता है। श्वास को देखना आत्म-साक्षात्कार की मंजिल तक पहुंचने का पहला कदम है।
___ श्वास को देखने का अर्थ है-दर्शन की बात पर आ जाना। यहां सोचना छूट जाता है, केवल देखना रह जाता है। देखना शुरू करते ही विचारों और विकल्पों पर प्रहार होने लग जाता है। विकल्पों से हटकर अविकल्प और चिंतन से हटकर अचिंतन पर कदम बढ़ने लगते हैं।
श्वास-प्रेक्षा के द्वारा हम जानने और देखने की मूल प्रवृत्ति का प्रारंभ करते हैं, ज्ञाता भाव, द्रष्टा भाव को विकसित करते हैं। जब हम श्वास-प्रेक्षा का अभ्यास करते हैं, तब श्वास के साथ चित्त को जोड़ते हैं या चित्त से श्वास को देखते हैं। श्वास को देखते हैं किन्तु सोचते नहीं। मूलतः 'केवल देखने' का यह प्रयत्न है। साथ-साथ एकाग्रता भी सधती है। किन्तु हम श्वास-प्रेक्षा केवल एकाग्रता के लिए नहीं करते, ज्ञाता-द्रष्टा भाव को विकसित करने के लिए करते हैं।
शक्ति-जागरण
हम दीर्घ-श्वास लेते हैं, दीर्घ-श्वास की प्रेक्षा करते हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि हम शक्ति के मूल स्रोतों को जागृत करने का प्रयत्न करते हैं। दीर्घश्वास को देखने की बात बहुत छोटी-सी लगती है, किन्तु यह बहुत गहरी बात है। एक अंगुली को पकड़ कर समूचे घर का मालिक बन जाने की बात है। हम इस प्रक्रिया से केवल प्राण को ही नहीं पकड़ रहे हैं, वरन्
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