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प्रेक्षाध्यान : सिद्धान्त और प्रयोग
(१) सारे शरीर में होने वाली टूट-फूट की गति में मंदता (२) हृदय के कार्य-भार में कमी, (३) रक्त-चाप में अनावश्यक वृद्धि को रोकना.
(४) स्नायविक शांति में वृद्धि । वैज्ञानिकपूर्ण श्वास
वैज्ञानिक दृष्टि से पूर्ण श्वसन का प्रारंभ मंद, शांत एवं पूरे उच्छवसन के साथ होता है। अन्तःश्वसन समाप्त होने पर जब उसके लिए प्रयुक्त मांसपेशियां शिथिल हो जाती हैं, तब विकसित छाती का हिस्सा अपने भार से ही सिकुड़ जाता है और भीतर की हवा बाहर निकलनी शुरू हो जाती है। उसके बाद पेट की मांसपेशियों को संकुचित करने से तनुपट ऊपर की ओर खिसकता है, जिससे फुफ्फुस में से और अधिक हवा निष्कासन करने में सहायता होती है। फुफ्फुसीय ऊतकों की स्पंजी रचना के कारण प्रयुक्त हवा का अंश भीतर रह जाता है। यह अवशिष्ट हवा अन्तःश्वसन के द्वारा ताजी प्रविष्ट हवा के साथ मिलकर आगे की प्रक्रिया के लिए प्राप्य हवा के रूप में काम आती है। फुफ्फुसों को जितना अधिक खाली किया जाएगा, उतना ही उनमें ताजी हवा का प्रवेश अधिक मात्रा में हो सकेगा और श्वास-प्रकोष्ठों में उपयोगार्थ हवा उतनी ही अधिक विशुद्ध या अमिश्रित रह सकेगी। अतः जब तक पूरी तरह उच्छ्वसन नहीं करते, तब तक अन्तर्श्वसन पूरा और सम्यग् नहीं हो सकता।
फुफ्फुसों को खाली करने के बाद दूसरा कदम उन्हें अधिक से अधिक भरने का है। फुफ्फुसों में समाने वाली हवा की मात्रा को फुफ्फुसीय क्षमता अथवा प्राण-क्षमता कहते हैं। औसतन रूप में यह लगभग ६ लीटर है। इस क्षमता को बढ़ाने की बात करने से पहले प्राप्य क्षमता का पूरा उपयोग कैसे हो सकता है, यह चिंतन आवश्यक है।
फुफ्फुस के इर्द-गिर्द श्वसन-क्रिया में उपयोगी तीन प्रकार की मांसपेशियों का उल्लेख किया जा चुका है। ये तीन प्रकार की मांसपेशियां
१. अन्तरापर्युक मांसपेशियां-ये पसलियों के ऊपर के और नीचे के छोर से संलग्न होती हैं। इन मांसपेशियों के संकुचित होने पर पसलियों का समूचा ढांचा ऊपर की ओर तथा बाहर की ओर फैलता है और इनके शिथिल होने पर वह उससे विपरीत दिशा में गति करता है अर्थात् संकुचित होता है।
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