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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
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उतने ही आसन होते हैं। जीव योनियां ८४ लाख मानी गई हैं। आसन भी ८४ लाख होते हैं। इनमें भी ८४ आसन श्रेष्ठ माने गये। इनमें भी ३२ आसन अति विशिष्ट, अधिक शुभ समझने चाहिए ।
घेरण्ड मुनि के अनुसार आदिनाथ ने पहले ८४ लाख आसन बताए क्योंकि संसार में प्राणियों के भी इतने ही प्रकार होते हैं। हर प्राणी में कुछ न कुछ विशेषता होती है। जैसे कुत्ते में घ्राण शक्ति तेज होती है तो गिद्ध में दृष्टि तेज होती है। जानवरों के शरीर के आकार और स्वभाव की भावना करने और तद्द्रूप बनने से उनके गुण भी आ ही जाते हैं। किन्तु इतने आसनों पर काम करना सम्भव न जानकर ८४ आसन विशिष्ट समझकर छांटे गए। उनमें भी ३२ आसन अति विशिष्ट मानकर तय किए गए। इस तरह हम देखते हैं कि आसनों की महत्ता हमारे अति प्राचीन योग-ग्रन्थों में भी पाई जाती हैं।
प्राणायाम के बारे में भी घेरण्ड संहिता में वर्णन है । श्वास पर नियन्त्रण प्राप्त करना ही प्राणायाम है। इसका मत भी प्राणायाम के बारे में हठयोग प्रदीपिका से मिलता है।
बौद्धों में भी आनापानसति के नाम से श्वास का बहुत महत्त्व है । ज्यों-ज्यों स्वभाव परिवर्तन होता है, श्वास भी बदल जाता है। इस तरह देखते हैं कि श्वास और वृत्तियों का गहरा सम्बन्ध है ।
भारतीय चिन्तन और अध्यात्म में आसन और प्राणायाम का बहुत महत्त्व है जो आज विज्ञान द्वारा समर्थित हो चुका है।
विज्ञान किसी भी देश - विशेष, जाति- विशेष, वर्ग-विशेष और धर्म- विशेष की वस्तु नहीं है। इसी तरह योग अध्यात्म का प्रयोगसिद्ध सिद्धांत है । आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में "योग योग होता है। वह न जैन होता है, न बौद्ध और न पातञ्जल । फिर भी व्यवहार ने कुछ रेखाएं खींच दीं, योग के प्रवाह को बांध बना दिया और नाम रख दिया - जैन योग, बौद्ध योग, पातंजल योग। पर इस सत्य को न भूलें - योग योग है, फिर उसका कोई भी नाम दो ।"
परमाणु प्रयोगशाला में सिद्ध वैज्ञानिक सत्य है। फिर चाहे उसको रूस के वैज्ञानिक ने अपनी प्रयोगशाला में प्रयोग कर सिद्ध किया हो, चाहे अमेरिकन या जापान ने ही। उसी तरह योग के सिद्धांत अध्यात्म की प्रयोगशाला में परखे जाते हैं और तभी वे सत्य रूप में सामने आते हैं। यह मानना नहीं जानना है। योग सत्य का प्रयोग है।
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