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अनुप्रेक्षा
१४६ कोई कत्य किया है, कोई ऐसा आचरण किया है, उसी का यह परिणाम सामने आ रहा है। पूरी दृष्टि अपनी सीमा में चली जाएगी।
प्रश्न होता है, क्या एक बात को बार-बार दोहराने से संस्कार धुल जाता है ? नाजियो का यह प्रसिद्ध सूत्र था-एक झूठ को हजार बार दोहराओ; वह सच हो जाएगा। हजार बार दोहराने से एक झूठ सच बन सकता है तो क्या हजार-लाख बार दोहराने से सच सच नहीं बनेगा? आवृत्ति का भी अपना महत्त्व है। आज विज्ञान का विद्यार्थी जानता है कि सूक्ष्म तथ्य को पकड़ने के लिए आवृत्ति पर ही ध्यान देना होता है। किस-किस फ्रीक्वेन्सी में क्या-क्या पकड़ा जा सकता है, यह वह भली-भांति
जानता है।
समूचा आकाश ध्वनियों के प्रकंपनों से भरा पड़ा है। पर हमारे कान या अन्य यन्त्र सभी ध्वनियों को नहीं पकड़ पाते। सभी अमुक-अमुक ध्वनि-प्रकम्पनों को ही पकड़ पाते हैं। यह भी आवृत्ति के सिद्धांत पर ही फलित होता है। तरंग-दैर्ध्य और तरंगों की हस्वता, लम्बी तरंगें और छोटी तरंगें, तरंग-दैर्ध्य (wave-length) को पकड़ना और आवृत्तियों (frequency) को पकड़ना-ये दोनों तथ्य जब ज्ञात हो जाते हैं, तब भावना का मूल्य अपने आप समझ में आ जाता है। हम भावना की कितनी आवृत्तियां करते हैं, किस तरंग की लम्बाई-चौड़ाई के साथ करते हैं, इस पर हमारे संस्कारों की धुलाई निर्भर करती है। मन्त्र और जप अनुप्रेक्षा ही है। यदि मन्त्र का प्रयोग करने वाला यह नहीं जानता कि किस मन्त्र का किस आवृत्ति में उच्चारण करना चाहिए, किस तरंग के साथ करना चाहिए, तो उस मन्त्र का प्रभाव नहीं होता और पूरी आवृत्तियां होने तक वह सिद्ध भी नहीं होता। अनुकरण और अभ्यास
चरित्र-निर्माण का स्थूल जगत् में भी बहुत बड़ा फार्मूला या तरीका है। आदमी स्वभाव से अपने बड़ों का अनुकरण करता है, उनके गुणों या अवगुणों का अनुकरण करता है। फिर उसी अनुकरण का बार-बार अभ्यास होता है और वही अनुकरण उसकी आदत बन जाता है। अच्छा अनुकरण करके अनेक लोग ऊंचाइयों पर पहंचे हैं तो बुरा अनुकरण करके लोग पतन के गड्ढे में भी गिरते देखे जाते हैं। नशे में जितनी भी आदतें हैं, वे अनुकरण से सीखी जाती है। बाद में निरन्तर के अभ्यास से वे आदत बन जाती हैं। यह जान लेने के बाद भी कि ये आदतें बहुत खराब हैं-इससे
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