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प्रेक्षाध्यान: सिद्धान्त और प्रयोग
अनिर्वचनीय एवं अपूर्व आनन्द
जब तेजस् लेश्या के स्पन्दन जागते हैं, तब व्यक्ति को अनिर्वचनीय आनन्दानुभूति होती है। उस आनन्द का प्रत्यक्ष अनुभव करने वाला ही उसे जान सकता है, वह उसे बता नहीं सकता । जिस व्यक्ति ने तेजोलेश्या का कभी प्रयोग नहीं किया, ध्यान नहीं किया, वह व्यक्ति इस स्थूल शरीर से परे भी कोई आनन्द होता है, इन विषयों से परे भी कोई सुखानुभूति है, नहीं समझ पाता, कल्पना भी नहीं कर पाता। जब तक वह प्रयोग से नहीं गुजरता, तब तक उसे ज्ञात ही नहीं होता कि ऐसा अनिर्वचनीय सुख भी हो सकता है। जो सुख का अनुभव होता है, वह अपूर्व होता है। व्यक्ति सोचता है - मैंने मान रखा था कि सुख तो पदार्थ से ही मिलता है किन्तु आज यह स्पष्ट अनुभव हो रहा है कि जैसा सुख तेजस् लेश्या के स्पन्दनों के जागने पर होता है, वैसा सुख जीवन में किसी भी पदार्थ से नहीं मिल सकता । भ्रांति टूट जाती है, धारणाएं बदल जाती हैं।
वास्तविकता यह है कि पदार्थों में सुख है ही नहीं। हमारे भीतर एक विद्युत्धारा है। वह सुख का निमित्त बनती है। वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि विद्युत् के प्रकम्पनों के बिना कोई सुख का संवेदन नहीं हो सकता। जो सुख, इन्द्रिय-विषयों के उपभोग से उपलब्ध किया जाता है, वही सुख इन्द्रिय-विषयों के बिना, कल्पना से भी किया जाता है और वही सुख केवल विद्युत् के प्रकंपन पैदा करके भी किया जा सकता है। कान के बिन्दु पर या स्वाद के बिन्दु पर इलेक्ट्रोड लगाकर प्रकंपन पैदा किया जाए, तो पदार्थ के बिना भी उनके उपभोग की सी सुख-संवेदना का अनुभव होता है। वस्तु के संयोग से जो प्रतिक्रियाएं पैदा होती हैं, वे प्रतिक्रियाएं वस्तु के बिना भी विद्युत् के प्रकंपनों से पैदा की जा सकती हैं। इसलिए यह तथ्य प्रमाणित हो गया कि सुख का संवेदन विद्युत् - प्रकंपन सापेक्ष है
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जब तेजस लेश्या जागती है, तब विद्युत् के प्रकम्पन बहुत बढ़ जाते हैं, तीव्रतम हो जाते हैं। प्रेक्षाध्यान के अभ्यास करने वाले को अनुभव होता है - पीत - लेश्या से चित्त प्रशांत होता है, शांति बढ़ती है और आनन्द बढ़ता है । दर्शन की शक्ति पीले रंग से विकसित होती है। दर्शन का अर्थ है - साक्षात्कार, अनुभव। इससे तर्क की शक्ति नहीं बढ़ती, साक्षात्कार की शक्ति बढ़ती है, अनुभव की शक्ति का विकास होता है ।
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