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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
करती है। यद्यपि लेश्या स्वयं तरंग है किन्तु निस्तरंग की दिशा में प्रस्थान के लिए लेश्या ध्यान बहुत सहयोग करता है ।
चिकित्सा पद्धति
हमारे समूचे भाव तंत्र पर रंगों का प्रभुत्व है। रंगों के द्वारा शारीरिक बीमारियां मिटाई जा सकती हैं, मानसिक दुर्बलताओं को मिटाया जा सकता है और आध्यात्मिक मूर्च्छा को तोड़ा जा सकता है। लेश्या-पद्धति आध्यात्मिक मूर्च्छार्ग को मिटाने की महत्त्वपूर्ण चिकित्सा पद्धति है। दूषित भावों और विकृत विचारों द्वारा जो जहर शरीर में पैदा होता है, जो विष एकत्रित होता है, उसे बाहर निकालने की यह अभूतपूर्व पद्धति है। रंगों के ध्यान से या रंग- चिकित्सा से संचित विष बाहर निकलते हैं और भाव तथा विचार निर्मल बनते हैं। जब भाव पवित्र होते हैं, निर्मल होते हैं तब विचार भी निर्मल होते हैं। विचारों का सम्बन्ध कषाय से नहीं है। विचारों का सम्बन्ध है मस्तिष्क से और ज्ञान से विचार, स्मृति, चिन्तन, विश्लेषण, चयन, निर्धारण-ये ज्ञान की जितनी शाखाएं हैं, इन सबका सम्बन्ध मस्तिष्क से है। जितने भाव हैं, उन सबका संबंध हमारी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से है। शरीर में दो तंत्र उनकी अभिव्यक्ति के हैं- एक है ग्रंथि-तंत्र और दूसरा है नाड़ी तंत्र । हमारे भावों को व्यक्त करता है ग्रंथि तंत्र और विचारों का निर्माण करता है नाड़ी तंत्र । पहला है भाव, दूसरा है विचार । विचार से भाव नहीं बनता, किंतु भाव से विचार बनता है। जिस लेश्या का भाव होता है, वैसा ही विचार बन जाता है। भाव अंतरंग-तंत्र है और विचार कर्म-तंत्र है। यह करने वाला तंत्र है भाव। इसलिए हमें विचारों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत नहीं है। विचारों पर वे लोग ध्यान दें जो बाहर ही बाहर घूमते हैं। जो भीतर की यात्रा कर रहे हैं, उन्हें विचार पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है। वे भाव पर ध्यान दें, भाव को निर्मल करें ।
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भावों को निर्मल बनाने का सबसे सरल उपाय है- रंगों का ध्यान करना । यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण उपाय है। प्रशस्त रंगों का ध्यान भावों को निर्मल बनाने में उपयोगी होता है। लाल, पीला और सफेद ये तीन रंग भाव-शुद्धि के कारण हैं।
जब हम इन प्रशस्त रंगों का ध्यान करते हैं और उनसे तन्मयता प्राप्त करते हैं, तब हमारे भाव परिवर्तित हो जाते हैं। विचारने और साधने की जरूरत नहीं, सहज बदल जाते हैं। सारे स्पन्दन बदल जाते हैं।
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