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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
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ने पर व्यक्ति सदा सुख की
- है। यदि विद्युत् का.
चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा का दूसरा परिणाम है-आनन्द-केन्द्र का न हमारे चित्त में ऐसे केन्द्र हैं, जिनके जाग जाने पर व्यक्ति स. स्थिति में रहता है। आनन्द का केन्द्र हमारे भीतर है। यदि विदा प्राण-धारा का ठीक प्रवाह वहां पहुंचे, उसे जगा पाए, तो फिर आन आनन्द हो जाता है। समता, साम्य, अनुकूल और प्रतिकूल स्थिति में एक समान भाव करना सम्भव है। यह तभी सम्भव है कि वह आनन्द का केन्द समता का केन्द्र जागृत हो जाए। चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा के द्वारा वह के जागृत होता है।
चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा का तीसरा परिणाम है-शक्ति का जागरण। हमारे शरीर में जो शक्ति के केन्द्र हैं, उन्हें हम चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा द्वारा जागत करते हैं। हम चैतन्य-केन्द्रों की प्रेक्षा करें। हम इस सचाई को जान लें कि चित्त को अधिक से अधिक हृदय से ऊपर, कंठ से ऊपर, सिर तक रखना लाभदायक होता है। बराबर ऐसा करें तो हमारी वृत्तियां समाप्त हो सकती हैं, स्वभाव बदल सकता है, व्यवहार बदल सकता है और चरित्र बदल सकता है। यह बहुत बड़ा रहस्य है, व्यवहार और आचरण को बदलने का, स्वभाव और आदतों को बदलने का। पदार्थ प्रतिबद्धता से मुक्ति-अनिर्वचनीय आनन्द
इस मूर्छा को तोड़ने के लिए चेतना को जगाएं। चेतना को व्यापक बनाने का अर्थ है चेतना की पदार्थ-प्रतिबद्धता को तोड़ देना। पदार्थ का उपयोग होगा, किन्तु चेतना पदार्थ से प्रतिबद्ध नहीं होगी। उपयोग करना
और प्रतिबद्ध होना-दोनों अलग-अलग बातें हैं। रोटी खाना पदार्थ की उपयोगिता है। रोटी से बंध जाना यह उसकी प्रतिबद्धता है। जिसकी चेतना जाग जाती है, वह भी रोटी खाता है। ध्यान करने वाला साधक भी रोटी खाता है, पानी पीता है, पैसा रखता है। ये जीवन के आवश्यक उपकरण हैं। सबके लिए जरूरी है। ध्यान करने का अर्थ यह नहीं है कि पदार्थ छूट जाए। ध्यान से पदार्थ नहीं छूटता। जब तक जीवन है, तब तक पदार्थ को नहीं छोड़ा जा सकता। आध्यात्मिक होने का यह अर्थ नहीं है कि भौतिक पदार्थ छूट जाए। पदार्थ का उपयोग नहीं छूटता, केवल पदार्थ की प्रतिबद्धता छूट जाती है। वह साधक पदार्थ से बंधा नहीं रहता. पदार्थ के चंगुल में फंसा नहीं रहता। चेतना के जागरण का यह मुख्य परिणाम है। उसमें पदार्थ की उपयोगिता शेष रहती है, प्रतिबद्धता समाप्त हो जाती है। समस्या का मूल प्रतिबद्धता है, उपयोगिता नहीं।
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