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चैतन्य केन्द्र-प्रेक्षा
१०६ पर स्पष्ट हो जाता है कि हमारे शरीर का सारा निर्माण नाम कर्म के आधार पर होता है।
उपरोक्त कर्मशास्त्रीय विश्लेषण और शरीरशास्त्रीय विश्लेषण को मिलाकर देखें। दोनों में भाषा का अन्तर है, तथ्य का नहीं। शरीरशास्त्री 'हार्मोन्स' 'सिक्रीशन्स ऑफ ग्लैण्ड्स', 'ग्रन्थियों का स्राव' कहते हैं। कर्मशास्त्री 'कर्मों का रसविपाक अनुभाग बन्ध' कहते हैं। योगशास्त्र और शरीरशास्त्र
हमारे शरीर में ग्रन्थियां हैं--चक्र हैं, कमल हैं। कमल जैसी चीज नहीं मिली, तो डॉक्टरों ने कहा-हमने सारे शरीर को चीरफाड़ कर देख डाला, अणु-अणु का विश्लेषण कर दिया, पर कहीं भी कमल नहीं मिला, कहीं चक्र दिखाई नहीं दिए। हां, डॉक्टरों को कुछ भी नहीं मिला। नाभि कमल हो या न हो, आज्ञा चक्र हो या न हो, विशुद्धि केन्द्र हो या न हो, किन्तु जो पाइनियल, पिच्यूटरी, थायरॉइड आदि ग्रन्थियां हैं, ग्लैंड्स हैं, उनको यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो योगशास्त्र और शरीरशास्त्र के प्रतिपादन में कोई विशेष भेद प्रतीत नहीं होगा।
_आगे हम प्रत्येक चैतन्य-केन्द्र के कार्य तथा उसकी प्रेक्षा से होने वाले महत्वपूर्ण परिणाम आदि विषयों की चर्चा करेंगे।
प्रयोजन
विवेक-चेतना का विकास
प्रत्येक मनुष्य में विवेक-चेतना अन्तर्निहित होती है। इसका जागरण नहीं होता, तब तक मनुष्य अपने चेतन मन के द्वारा केवल बुद्धि और तर्क के आधार पर ही अपनी वृत्तियों की मांग पर विमर्श करता है। उसमें विवेक-चेतना को प्रयोग में नहीं लाता। वस्तुतः उसकी बौद्धिक और तार्किक शक्ति पर वृत्तियां इतनी अधिक हावी हो जाती हैं कि वह उसकी मांग के औचित्य-अनौचित्य का सही निर्णय करने में सक्षम नहीं होती। ऐसी स्थिति में उनका चेतन मन वृत्तियों की मांग को उचित ठहराने हेतु कोई न कोई तर्क या युक्ति ढूंढ निकालता है। इसलिए अपनी मौलिक मनोवृत्तियों के प्रेरक बलों पर प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए यह आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य के उस विलक्षण वैशिष्ट्य को उजागर किया जाए जिसे 'विवेक-चेतना' और 'विवेक-पूर्ण तर्क' कहा जाता है और अन्त
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